Book Title: Mahavir Pat Parampara Author(s): Chidanandvijay Publisher: Vijayvallabh Sadhna KendraPage 12
________________ सम्मिलित होती गई। श्री कल्पसूत्र में भी फरमाया गया है - "जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एए णं सव्वे अज्ज-सुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना" अर्थात् आजकल जो भी श्रमण-निग्रंथ विचर रहे हैं, वे सभी आर्य सुधर्म की परम्परा के सन्तानीय हैं, अवशेष गणधरों की परम्परा विच्छिन्न (विलुप्त) हो चुकी है। जिस रात्रि भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उसी रात्रि प्रथम गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम स्वामी जी को केवलज्ञान हुआ। उस समय तक सुधर्म स्वामी जी को केवलज्ञान नहीं हुआ था यानि वे छद्मस्थ अवस्था में ही थे। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतम स्वामी जी की उपस्थिति में उन्हें छोड़ सुधर्म स्वामी जी को पट्टधर क्यों बनाया? इसके उत्तर में फरमाया गया है कि केवलज्ञानी स्वयं समस्त पदार्थों के पूर्ण ज्ञाता होने से अपने ज्ञान के आधार पर उपदेश देते हैं, न कि अन्य किसी के उपदेश के आधार से। छद्मस्थ कहते हैं - "भगवान् ने ऐसा फरमाया है" या मैंने प्रभु के मुख से जैसा सुना, वैसा ही कहता हूँ।" केवलज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते। वे तो कहते हैं - मैं केवलज्ञान में ऐसा देखता हूँ" इत्यादि। जिनशासन के संचालन में प्रथम पक्ष की ही आवश्यकता होती है अर्थात् छद्मस्थ ही परम्परा का संवहन करते हैं। केवलज्ञानी घाति कर्म से मुक्त होते हैं। संघ के संचालन के लिए सारणा-वारणा-चोयणा-पडिचोयणा की आवश्यकता होती है, कभी शिष्यों पर क्रोध भी करना होता है किंतु केवलज्ञानी ऐसा करने में असमर्थ होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान के धनी थे। इस कारण भगवान् महावीर ने सुधर्म स्वामी जी को पट्टधर पद का दायित्व पहले ही प्रदान कर दिया था। ठीक उसी तरह जिस तरह एक राजा अपने भावी राजा को स्थापित करता है। प्रभु के निर्वाण पश्चात् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन उनका पट्ट प्रदान महोत्सव कहा जाता है। अनेकों आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि साधु-साध्वी जी उनकी आज्ञा में रहे। आचार्य भगवन्त सूरि मंत्र की विशिष्ट साधना करते हैं, जिसके बल से ही उन्हें जिनशासन प्रभावना की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। वह सूरिमंत्र भी परम्परा से सुधर्म स्वामी जी की वाचना से ही प्राप्त होता है। .. वर्तमानकालीन परिपाटी में प्रयुक्त स्थापनाचार्य जी भी सुधर्म स्वामी जी का प्रतीक है। अनेकों जगह उन्हें 'सुधर्मा' शब्द से संबोधित किया जाता है किंतु अनेकों प्राचीन ग्रंथों में अज्जसुहम्मस्स (कल्पसूत्र), सुहम्मं (नन्दीसूत्र), सिरिसुहम्म (दुषमाकाल श्री श्रमण संघ स्तोत्र), सुधर्मस्वामिभाषिता (प्रभावक चरित्र), अज्जसुहम्मे (निरयावलिया), सुधर्मस्वामिनो (आवश्यक नियुक्ति), सुधम्मसामी XPage Navigation
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