________________
आत्म-सून
१२३
(२१५) जीव.र दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धानां को जीतता है, यदि वह एक अपनो आत्मा को जीत ले, तो यही उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय होगी।
श्रानो आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिये, बाहरी स्थल शत्रयों के साथ युद्ध करने से क्या लान ? ग्राला द्वारा श्रात्मा को जीतने वाला ही वालय में पूर्ण मुखी देता है।
(२१७) पांच इन्द्रियों, ऋष, नान, माया, लोन तथा सबसे अधिक दुर्जय अपनी बालसा को जोतना चाहिये । एक यात्मा के जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है।
(२२८) ___ तिर बाटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में लगी हुई अपनी आत्मा करती है । दयाशून्य दुराचारों को अपने दुराचरणों का पहले ध्यान नहीं याता; परन्तु जब वह मृत्यु के नुख में पहुँचता है, तब याने सब दुराचरणों को याद कर-कर पछताता है ।
(२.१६) जिस साधक की याला इस प्रकार सुनिश्चयो हं. कि मैं शरीर छोड़ सकता हूँ,परन्तु अपना धर्म-शासन छोड़ ही नहीं सकता;