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बंधसण्णियासपरूवणा ओरालि०अंगो०-वजरि०-पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४--पसत्थ०-तस०४थिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगु०।
१३. अप्पसत्थ० उ० बं० णिरय-तिरिक्ख०-असंप०-दोआणु० सिया० । तं तु० छहाणपदिदं० । पंचिंदि०-तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-तस४-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । ओरालि०-वेउव्वि०-दोअंगो०-उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं०। हुंड०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-अथिरादिछ. णिय० । तं तु. छहाणपदिदं० । एवं दुस्सर०।
१४. सुहुम० उ. बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा.-क०-हुंड०पसत्यापसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-यावर-अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । अपज्ज०-साधार० णिय० । तं तु० छटाणपदिदं० । एवं अपज्जत्त-साधारण० । पंचंतराइयाणं णाणावरणभंगो।।
१५. णिरएसु सत्तणं कम्माणं ओघं । तिरिक्ख० उ० बं० पंचिंदि०वाला जीव तिर्यञ्चगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है।
१३. अप्रशस्त विहायोगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, तिर्यश्चगति, असाप्राप्तामृपाटिका संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। पश्चन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णं चतुष्क, अगुरुलघु त्रिक, त्रसचतुष्क
और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार दुःस्थर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१४. सूक्ष्मके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अस्थिर श्रादि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो 'अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। अपर्याप्त और साधारणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पाँच अन्तरायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है।
१५. नारकियोंमें सात कर्मोका भंग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका
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