Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 11
________________ १३६ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ इतना विशेष और जान लेना चाहिए कि अनुत्कृष्ट में उत्कृष्ट को छोडकर जघन्यसहित सत्र का परिग्रह हो जाता है तथा अजघन्य में जघन्य को छोडकर उत्कृष्ट सहित सब का परिग्रह हो जाता है । उक्त नियम प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध में और प्रदेशबन्ध सर्वत्र लागू होते हैं । मात्र जहाँ प्रकृति आदि जिस बन्ध का कथन चल रहा हो वहाँ उसके अनुसार विचार कर लेना चाहिए । ५. सादि - अनादि - ध्रुव - अध्रुव स्थितिबन्ध स्थितिबन्ध चार प्रकार का होता है— उत्कृष्ट स्थिति बन्ध, अनुत्कृष्ट स्थिति बन्ध, जघन्य स्थिति बन्ध और अजघन्य स्थिति बन्ध । इन चारों प्रकार के स्थिति बन्धों में से कौन स्थितिबन्ध सादि आदि में से किस प्रकार का होता है इस का विचार इन चारों अनुयोग द्वारों में किया गया है । यथा ज्ञानावरणादि सात कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के अपने योग्य स्वामित्व के प्राप्त होने पर ही होता है। इसलिए वह सादि है और चूंकि वह नियतकाल तक ही होता है, उसके बाद पुन: ब उसके योग्य स्वामित्व प्राप्त होता है तभी वह होता है, मध्य के काल में नहीं, इसलिए वह उत्कृष्ट स्थिति ध्रुव है । तथा मध्य के काल में जो उससे न्यून स्थिति बन्ध होता है वह सब अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । यतः वह उत्कृष्ट स्थिति बन्ध के बाद ही सम्भव है और तभी तक सम्भव है जब तक पुनः उत्कृष्ट स्थिति बन्ध प्राप्त नहीं होता । इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है । जघन्य स्थिति बन्ध क्षपक श्रेणि में मोहनी का नौवें गुणस्थान में और शेष छह का दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है । इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है । किन्तु पूर्व अनादि काल से उक्त सातों कर्मों का अनादि से जो स्थितिबन्ध होता है वह जघन्य स्थितिबन्ध कहलाता है । क्योंकि इसमें जघन्य स्थिति बन्ध को छोडकर शेष सब का परिग्रह हो जाता है । इसलिए तो वह अनादि है और ध्रुव है । तथा उपशम श्रेणि में ग्यारहवें गुणस्थान से गिरने पर पुनः इन कर्मों का यथा स्थान बन्ध प्रारम्भ हो जाता है । इसलिए वह सादि और अध्रुव है । आयुकर्म का बन्ध कादाचित्क होने से उसमें सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प बनते हैं । विशेष जानका हो जाय इसलिए इन चारों अनुयोग द्वारों का वहाँ स्पष्टीकरण किया है । ६. बन्ध स्वामित्व प्ररूपणा स्थिति बन्ध के स्वामित्व को समझने के लिए कुछ तथ्यों का यहाँ विचार किया जाता है । यथा सामान्य नियम यह है कि सातावेदनीय आदि प्रकृतियों के बन्ध योग्य परिणामों को विशुद्धि कहते हैं और असातावेदनीय आदि प्रकृतियों के बन्ध योग्य परिणामों को संक्लेश कहते हैं । इस नियम के अनुसार ज्ञानावरणादि सभी कर्मों का स्थिति बंन्ध किस प्रकार होता है इसका यहाँ विचार करना है । बन्ध चार प्रकार का है— प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेश बन्ध । इन में से प्रकृति बन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होता है तथा स्थिति बन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होता है । ऐसा होते हुए भी यदि कषाय-उदय स्थानों को ही स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान मान लिया जावे तो कषाय: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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