Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 17
________________ १४२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ और उत्तर प्रकृति अनुभाग बन्ध के भेदसे दो प्रकार का है । उन्हीं दोनों अनुभाग बन्धों का इस अधिकार में निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम मूलप्रथम मूलप्रकृति अनुभाग बन्ध के प्रसंग से ये दो अनुयोग द्वार निबद्ध किये गये हैं-निषेक प्ररूपणा और स्पर्धक प्ररूपणा । ज्ञानावरणादि कर्मों में से जिसमें देशघाति या सर्वघाति जो स्पर्धक होते हैं वे आदि वर्गणा से लेकर आगे की वर्गणाओं में सर्वत्र पाये जाते हैं। इस विषय का प्रतिपादन निषेक प्ररूपणा में किया गया है । अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेदों को एक वर्ग होता है, सिद्धों के अनन्तवे भाग और अभव्यों से अनन्त गुणे वर्गों की एक वर्गणा होती है, तथा उतनी ही वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है इस विषय का विवेचन स्पर्धक प्ररूपणा में किया गया है। २४ अनुयोग द्वार आगे उक्त अर्थपद के अनुसार २४ अनुयोग द्वारों का आलम्बन लेकर ओघ और आदेश से अनुभाग बन्ध को विस्तार से निबद्ध किया गया है। अनुयोग द्वारों के नाम वे ही हैं जिनका निर्देश प्रकृति बन्ध के निरूपण के प्रसंग से कर आये हैं । मात्र प्रकृति बन्ध में प्रथम अनुयोग द्वार का नाम प्रकृति समुत्कीर्तन है और इस अधिकार में प्रथम अनुयोग द्वार का नाम संज्ञा है। १. संज्ञा अनुयोग द्वार संज्ञा के दो भेद हैं-घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में से कौन कर्म घाति है और कौन अघाति हैं इस विषय का उहापोह करते हुए बतलाया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाति कर्म है। तथा शेष चार अघाति कर्म हैं। जो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, सुख, वीर्य, दान, लाभ, भोग, और उपभोग आदि गुणों का घात करते हैं उन्हें घाति कर्म कहते हैं तथा जो इन गुणों के घातने में समर्थ नहीं है उन्हें अघाति कर्म कहते हैं। अघाति कर्मों में से वेदनीय कर्म के उदय से पराश्रित सुख दुःख की उत्पत्ति होती है। आयु कर्म उदय से नारक आदि भावों में अवस्थिति होती है। नाम कर्म के उदय से नारकादि गतिरूप जीव भावों की तथा विविध प्रकार के शरीरादि की उत्पत्ति होती है तथा गोत्र कर्म के उदय से जीव में ऊँच और नीच आचार के अनुकूल जीवभाव की उत्पत्ति होती है। स्थान संज्ञाद्वारा घाति और अघाति कर्म विषयक अनुभाग के तारतम्य को बतलानेवाले स्थानों का निर्देश किया गया है। उनमें से घाति कर्म सम्बन्धी स्थान चार प्रकार के हैं-एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय । जिस में लता के समान लचीला अति अल्प फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह एक स्थानीय अनुभाग कहलाता है। जिस में दारु के (काष्ठ के) समान कुछ सघन और कठिन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है। जिस में हड्डी के समान सघन होकर अति कठिन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह त्रिस्थानीय अनुभाग कहलाता है, तथा जिसमें पाषाण के समान अति कठिनतर सघन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह चतु:स्थानीय अनुभाग कहलाता है। इस प्रकार उक्त विधि से घाति कर्मों का अनुभाग चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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