Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 18
________________ महाबंध १४३ प्रकार का है। उनमें से एकस्थानीय अनुभाग और द्विस्थानीय अनुभाग के प्रारम्भ का अनन्तवा भाग यह देशघाति है, शेष सर्व अनुभाग सर्वघाति है। प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से अघाति कर्म दो प्रकार के हैं। उनमें से प्रत्येक कर्म में चारचार प्रकार का अनुभाग पाया जाता है। पहले हम सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दो कर्मों में वह चार-चार प्रकार का अनुभाग कैसा होता है इसका स्पष्ट उल्लेख कर आये हैं उसी प्रकार वहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। यहाँ यह निर्देश करना आवश्यक प्रतीत होता है कि अनुभागबन्ध के प्रारम्भ का एक ताडपत्र त्रुटित हो गया है। इस कारण उक्त प्ररूपणा तथा इससे आगे की छह अनुयोग द्वार सम्बन्धी प्ररूपणा उपलब्ध नहीं है। साथ ही सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इन अनुयोग द्वारों की प्ररूपणा का बहुभाग भी उपलब्ध नहीं है। किन्तु इन जो नाम हैं उनके अनुरूप ही उनमें विषय निबद्ध किया गया है । विशेष वक्तव्य न होने से यहाँ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है । २. स्वामित्व अनुयोग द्वार इस अनुयोग द्वार के अन्तर्गत ज्ञानावरणादि कर्मों के जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध के स्वामित्व का विचार करने के पूर्व विशेष स्पष्टीकरण की दृष्टि से प्रत्ययानुगम, विपाकदेश और प्रशस्त-अप्रशस्त प्ररूपणा इन तीन अनुयोग द्वारों को निबद्ध किया गया है। प्रत्ययानुगम-प्रत्यय का अर्थ निमित्त, हेतु, साधन और कारण है। जीवों के किन परिणामों को निमित्त कर इन ज्ञानावरणादि मूल व उत्तर प्रकृतियों का बन्ध होता है इस विषय को इस अनुयोग द्वार में निबद्ध किया गया है। वे परिणाम चार प्रकार के हैं-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । परमार्थ स्वरूप देव, गुरु, शास्त्र और पदार्थों में अयथार्थ रुचि को मिथ्यात्व कहते हैं। निदान का अन्तर्भाव मिथ्यात्व में ही होता है। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मसेवन, परिग्रह का स्वीकार, मधु-मांस-पांच उदम्बर फल का सेवन, अभक्ष्यभक्षण फूलों का भक्षण, मद्यपान तथा भोजनवेला के अतिरिक्त काल में भोजन करना अविरति है। असंयम इसका दूसरा नाम है। क्रोध, मान, माया और लोभ तथा राग और द्वेष ये सब कषाय हैं। तथा जीवों के प्रदेश परिस्पंद का नाम योग है। इनमें से मिथ्यात्व अविरति और कषाय ये ज्ञानावरणादि छह कर्मों के बन्ध के हेतु है तथा उक्त तीन और योग ये चारों वेदनीय कर्म के बन्ध के हेतु हैं। यहाँ प्रारम्भ के छह कर्मों के बन्ध-हेतुओं में योग को परिगणित न करने का यह कारण है कि ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में योग का सद्भाव रहने पर भी उक्त कर्मों का बन्ध नहीं होता। वैसे ऋजु सूत्र नय की अपेक्षा सामान्य नियम यह है कि आठों कर्मों का प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होता है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होता है। पर उस नियम की यहाँ विवक्षा नहीं है। यहाँ जिस कर्म बन्ध के साथ जिसकी त्रैकालिक अन्वय-व्यतिरेक रूप बाह्य व्याप्ति है उसके साथ उसका कार्य कारण भाव स्वीकार किया गया है। योग के साथ एसी व्याप्ति नहीं बनती, क्योंकि ग्यारहवें आदि तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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