Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 19
________________ १४४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ गुणस्थानों में योग के रहने पर भी ज्ञानावरणादि छह कर्मों का बन्ध नहीं होता, इसलिए इन छह कर्मों के बन्ध के हेतु मिथ्यात्व, अविरति और कषाय को कहा है। यहाँ आयु कर्म के बन्ध के हेतु जीव के कौन परिणाम हैं इस का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। आगे उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा में नरकायु को मिथ्यात्व प्रत्यय तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायु को मिथ्यात्व प्रत्यय और असंयम प्रत्यय तथा देवायु को मिथ्यात्व प्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय बतलाया है। इससे विदित होता है कि आयु कर्म का बन्ध मिथ्यात्व प्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय होना चाहिए। अपनी-अपनी बन्ध व्युच्छिति को ध्यान में रखकर उत्तर प्रकृतियों के बन्ध प्रत्ययों का विचार इसी विधि से कर लेना चाहिए। विपाक देश-छह कर्म जीव विपाकी है, आयुकर्म भव विपाकी है तथा नामकर्म जीव विपाकी और पुद्गल विपाकी है। यहाँ जो कर्म जीव विपाकी हैं उनसे जीव की नो आगम भावरूप विविध अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं और नाम कर्म की जो प्रकृतियां पुद्गल विपाकी है उनसे जीवके प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाही शरीरादि की रचना होती है। पुद्गल-विपाकी कर्मों के उदय से जीवके नोआगमभावरूप अवस्था नहीं उत्पन्न होती। लेश्या कर्म का कार्य है और धनादि का संयोग लेश्या का कार्य है, अर्थात् व्यक्त या अव्यक्त जैसा कषायांश और योग (मन, वचन और काय की प्रवृत्ति) होता है उसके अनुसार धनादि का संयोग होता है इस विवक्षा को ध्यान में रख कर ही धनादिक की प्राप्ति को कर्म का कार्य कहाँ जाता है। प्रशस्त-अप्रशस्तप्ररूपणा-चारों घातिकर्म अप्रशस्त हैं तथा शेष चारों अघाति कर्म प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के हैं । उत्तर भेदों की अपेक्षा प्रशस्त कर्म प्रकृतियां ४२ है और अप्रशस्त कर्म प्रकृतियां ८२ है। वर्ण चतुष्क प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं, इसलिए उन्हें दोनों में सम्मिलित किया गया है । सरल होने से यहाँ उनके नामों का निर्देश नहीं किया गया है । इस व्यवस्था के अनुसार उक्त ४२ प्रशस्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यथास्थान अपनेअपने योग्य उत्कट विशुद्धि के काल में होता है और ८२ अप्रशस्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अपनेअपने योग्य उत्कट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टि के होता है। किन्तु जघन्य अनुभागबन्ध के लिए इससे विपरीत समझना चाहिए । अर्थात् प्रशस्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य संक्लेश के प्राप्त होने पर होता है और अप्रशस्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य विशुद्धि के प्राप्त होनेपर होता है। यहाँ प्रथम इस बात का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति इन चार युगलों के जघन्य अनुभागबन्ध के स्वामी क्रम से चारों गति के परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि को बतलाया गया है। जब की गोम्मटसार कर्मकाण्ड में परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले जीवों के स्थान में अपरिवर्तमान मध्यम परिणामवाले जीव लिये गये हैं। वेदनाखण्ड में जो जघन्य अनुभागबन्ध के अल्पबहुत्व को सूचित करनेवाला ६४ पदवाला अल्पबहुत्व आया है उसमें मध्यम परिणामवाला इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध करता है ऐसा उल्लेख नहीं किया है। किन्तु वहाँ अयशःकीर्ति सर्वविशुद्ध यशःकीर्ति का अति तीव्र संक्लिष्ट और सातावेदनीय का सर्वविशुद्ध जीव जघन्य अनुभागबन्ध करता है ऐसा बतलाया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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