Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 24
________________ महाबंध १४९ का वीर्य क्षायिक होने पर भी उक्त लक्षण के स्वीकार करने में कोई दोष नहीं प्राप्त होता और इसीलिए अयोग केवलीयों और सिद्धों में अतिप्रसंग भी नहीं प्राप्त होता । ___ अब एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि सब संसारी जीवों के सब प्रदेश व्याधि और भय आदि के निमित्त से सदा काल चलायमान ही होते रहते हैं ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। ऐसे समय में कुछ प्रदेश चलायमान भी होते हैं और कुछ प्रदेश चलायमान नहीं भी होते। उनमें से जो प्रदेश चलायमान न होकर स्थित रहते हैं उनमें योग का अभाव होने से कर्मबन्ध नहीं होगा। उस समय जो प्रदेश स्थित रहते हैं उनमें परिस्पन्द नहीं होने से योग नहीं बन सकेगा यह स्पष्ट ही है। यदि परिस्पन्द के विना उनमें भी योग स्वीकार किया जाता है तो अयोग केवलियों और सिद्धों के भी योग का सद्भाव स्वीकार करने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है। समाधान यह है कि मन, वचन और काय की क्रिया की उत्पत्ति के लिए जो जीव का उपयोग होता है उसे योग कहते हैं और वह कर्मबन्ध का कारण है। यह उपयोग कुछ जीव प्रदेशों में हो और कुछ में न हो यह तो बनता नहीं, क्यों कि एक जीव में उपयोग की अखण्डरूप से प्रवृत्ति होती है। और इस प्रकार सब जीव प्रदेशों में योग का सद्भाव बन जाने से कर्मबन्ध भी सब जीवप्रदेशों में बन जाता है । यदि कहा जाय कि योग के निमित्त से सब जीव प्रदेशों में परिस्पन्द होना ही चाहिए सो यह एकान्त नियम नहीं है। किन्तु नियम यह है कि जो भी परिस्पन्द होता है वह योग के निमित्त से ही होता है, अन्य प्रकार से नहीं। इसी प्रकार यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि जीव का एक क्षेत्र को छोडकर क्षेत्रान्तर में जाना इसका नाम योग नहीं है क्योंकि सा मानने पर सिद्ध जीवों का सिद्ध होने के प्रथम समय में जो ऊर्ध्व लोक के अन्त तक गमन होता है उसे भी योग स्वीकार करने पडेगा । अत एव यही निश्चित होता है कि जहाँ तक शरीर नाम कर्म का उदय है योग वहीं तक होता है । यतः सयोग केवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक यथा सम्भव उक्त कर्मों का उदय नियम से पाया जाता है, अतः योग का सद्भाव भी वहीं तक स्वीकार किया गया है । वह योग तीन प्रकार का है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग । भावमन की उत्पत्ति के लिए होनेवाले प्रयत्न को भावमन कहते हैं, वचन की प्रवृत्ति के लिए होनेवाले प्रयत्न को वचनयोग कहते हैं, तथा शरीर की क्रिया की उत्पत्ति के लिए होनेवाले प्रयत्न को काययोग कहते हैं। इन तीनों योगों की प्रवृत्ति क्रम से होती है। इन तीनों में से जब जिसकी प्रधानता होती है तब उस नाम का योग कहलाता है । ही मन, वचन और काय की युगपत् प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है सो इस प्रकार युगपत् प्रवृत्ति होने में विरोध नहीं है । किन्तु उनके लिए युगपत् प्रयत्न नहीं होता, अतः जब जिसके लिए प्रथम परिस्पन्दरूप प्रयत्न विशेष होता है तब वहीं योग कहलाता है ऐसा समझना चाहिए । एक जीव के लोकप्रमाण प्रदेश होते हैं उनमें एक काल में परिस्पन्दरूप जो योग होता है उसे योगस्थान कहते हैं। उसकी प्ररूपणा में ये दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, और अल्पबहुत्व ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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