Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 26
________________ महाबंध १५१ उत्कृष्ट काल अलग-अलग है। किन्ही का दो समय है, किन्ही का तीन समय है और किन्ही का अलग-अलग चार, पांच, छह, सात और आठ समय है। ये सब योगस्थान अलग-अलग जगत् श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । तथा सब मिलाकर भी जगत् श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। __उनमें से आठ समय वाले योगस्थान अल्प होते हैं। यवयमध्य के दोनों ही पार्श्व भाग में होने वाले योगस्थान परस्पर समान होकर भी उनसे असंख्यात गुणे होते हैं। इसी प्रकार छह, पांच और चार समय वाले योगस्थानों के विषय में जान लेना चाहिए। तीन और दो समय वाले योगस्थान मात्र ऊपर के पार्श्व भाग में ही होते हैं। इन योगस्थानों में चार वृद्धि और चार हानियाँ होती हैं। अनन्तभाग वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि तथा ये ही दो हानियाँ नहीं होतीं। इनमें से तीन वृद्धियों और तीन हानियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। तथा असंख्यात गुण वृद्धि और असंख्यात गुणहानि का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त होता है । यहाँ प्रश्न है कि जिस प्रकार कर्म प्रदेशों में अपने जघन्यगुण के अनन्तवें भाग की अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा होती है उसी प्रकार यहाँ भी एक जीव प्रदेशसम्बन्धी जघन्य योग के अनन्तवें भाग की अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा क्यों नहीं होती ? समाधान यह है कि जिस प्रकार कर्म गुण में अनन्तभाग वृद्धि पायी जाती है वैसा यहाँ सम्भव नहीं है, क्यों कि यहाँपर एक-एक जीव प्रदेश में असंख्यात लोक प्रमाण ही योग-अविभाग प्रतिच्छेद पाये जाते हैं, अनन्त नहीं। जीव दो प्रकार के हैं पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त । इनमें से उक्त दोनों प्रकार के जीवों के नृतन भवग्रहण के प्रथम समय में उपपाद योगस्थान होता है, भवग्रहण से दूसरे समय से लेकर लब्ध्यपर्याप्त जीवों के आयुबन्ध के प्रारम्भ होने के पूर्व समय तक तथा पर्याप्त जीवों के शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धि योगस्थान होता है तथा आगे दोनों के भव के अन्तिम समय तक परिणाम योगस्थान होता है। अल्पबहुत्व का विचार करने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य सब के स्तोक है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी और संज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त का और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग क्रम से असंख्यात गुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग क्रम से असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग क्रम से असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग, पर्याप्त उन्हीं का जघन्य योग तथा पर्याप्त उन्हीं का उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा है। यहाँ प्रत्येक का उत्तरोत्तर योगगुणकार पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यहाँ जिस प्रकार योग का अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार बन्ध को प्राप्त होनेवाले प्रदेशपुञ्ज का अल्पबहुत्व जानना चाहिए । गुणकार भी वही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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