Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 25
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ एक-एक जीव प्रदेश में जो जघन्य वृद्धि होती है वह योग अविभागप्रतिच्छेद कहलाता है । इस विधि से एक जीव प्रदेश में असंख्यात लोक प्रमाण योग- अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इस प्रकार यद्यपि जीव के सब प्रदेशों में उक्त प्रमाण ही योग-अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । फिर भी एक जीव प्रदेश में स्थित जघन्य योग से एक जीव प्रदेश में स्थित उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा होता है । १५० सब जीव प्रदेशों में समान योग - अविभागप्रतिच्छेद नहीं पाये जाते, इसलिए असंख्यात लोकप्रमाण योग -अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है । सब वर्गणाओं का सामान्य से यही प्रमाण जानना चाहिए । आशय यह है कि जितने जीव प्रदेशों में समान योग - अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं उनकी एक वर्गणा होती है । तथा दूसरे एक अधिक समान योग - अविभागप्रतिच्छेदवाले जीव प्रदेशों की दूसरी वर्गणा होती है। यही विधि एक स्पर्धक के अन्तर्गत तृतीयादि वर्गणाओं के विषय में भी जानना चाहिए | ये सब वर्गणाऐं एक जीव के सब प्रदेशों में श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं । इतना विशेष है कि प्रथम वर्गणा से द्वितीयादि वर्गणाऐं जीव प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर विशेष हीन होती हैं । एक वर्गणा में कितने जीव प्रदेश होते हैं इसका समाधान यह है कि प्रत्येक वर्गणा में जीव प्रदेश असंख्यात प्रतरप्रमाण होते हैं । संज्ञा है । इस नियम के अनुसार होता है । इस स्पर्धक के अन्तर्गत योग अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं जहाँ वृद्धि और महानि पाई जाती है उसकी स्पर्धक जगत् श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणाओं का एक स्पर्धक जितनी वर्गणाऐं होती हैं उनमें से प्रथम वर्गणा के एक वर्ग में जितने उससे दूसरी वर्गणा के एक वर्ग में एक अधिक योग - अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । यही क्रम प्रथम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा तक जानना चाहिए। इसके आगे उक्त क्रमवृद्धि का विच्छेद हो जाता है । इस विधि से एक जीव के सब प्रदेशों में जगत् श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक प्राप्त होते हैं । इतना विशेष है कि प्रथम स्पर्धक के ऊपर ही प्रथम स्पर्धक की ही वृद्धि होनेपर दूसरा स्पर्धक प्राप्त होता है, क्यों कि प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के एक वर्ग से दूसरे स्पर्धक की प्रथम वर्गणा का एक वर्ग दूना होता है । प्रथम स्पर्धक और दूसरे स्पर्धक की चौडाई (विस्तार) बराबर है । मात्र द्वितीय स्पर्धक का आयाम प्रथम स्पर्धक के आयाम से विशेष हीन है । यद्यपि ऐसी स्थिति है फिर भी यह कथन एकदेश विकृति को ध्यान में न लेकर द्रव्यार्थिक नय से किया गया है । इस प्रकार दो स्पर्धकों के मध्य कितना अन्तर होता है इसका यह विचार है । आगे के स्पर्धकों में इसी विधि से अन्तर जान लेना चाहिए । इस प्रकार एक जीव के सब प्रदेशों में जगत् श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक प्राप्त होते हैं । इन्हीं सबको मिलाकर एक योगस्थान कहलाता है । सब जीवों के नाना समयों की अपेक्षा ये योगस्थान भी जगत् श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा का विचार सुगम है । सब योगस्थान तीन प्रकार के हैं-उपपाद-योगस्थान, एकान्तानुवृद्धि - योगस्थान और परिणाम योगस्थान । इनमें से प्रारम्भ के दो योगस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही है । सब परिणाम योगस्थानों का जघन्य काल एक समय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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