Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 21
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ अन्तरप्ररूपणा-पूर्व में जो अनुभागबन्ध स्थान बतलाये हैं उनमें से एक अनुभागबन्धस्थान से दूसरे अनुभागबन्धस्थान में अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा सब जीवों से अनन्तगुणा अन्तर पाया जाता है । उपरित स्थानमें से अधस्तन स्थान को घटाकर जो लब्ध आवे उसमें एक कम करने पर उक्त अन्तर प्राप्त होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। ___ काण्डकप्ररूपणा -- अनन्तभाग वृद्धिकाण्डक, असंख्यात भाग वृद्धिकाण्डक, संख्यात भाग वृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक, असंख्यातगुणवृद्धिकाण्डक और अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक इस प्रकार इन छह के आधार से इसमें वृद्धि का विचार किया गया है । ओजयुग्मप्ररूपणा-इस द्वारा वर्ग, स्थान और काण्डक ये कृतयुग्मरूप है या बादर युग्मरूप है, या कनि (2) ओजरूप है, तेजोजरूप है इसका उहापोह करते हुए अविभाग प्रतिच्छेद, स्थान और काण्डक ये तीनों कृतयुग्मरूप है यह बतलाया गया है। षट्स्थानप्ररूपणा-अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि यह छह वृद्धियाँ है इनका प्रमाण कितना है यह इस प्ररूपणा में बतलाया गया है। अधस्तन स्थानप्ररूपणा--कितनी बार अनन्तभाग वृद्धि होने पर एक बार असंख्यातभाग वृद्धि होती है इत्यादि विचार इस प्ररूपणा में किया गया है । समय प्ररूपणा-जितने भी अनुभाग बन्धस्थान हैं उनमें से कौन अनुभाग बन्धस्थान कितने काल तक बन्ध को प्राप्त होता है इस का ऊहापोह इस प्ररूपणा में किया गया है । वृद्विप्ररूपणा - षड्गुणी हानि-वृद्धि और तत्सम्बन्धी कालका विचार इस प्ररूपणा में किया गया है । यवमध्यप्ररूपणा-यवमध्य दो प्रकार का है-जीव यवमध्य और काल यवमध्य । यहाँ काल यवमध्य विवक्षित है । यद्यपि समयप्ररूपणा के द्वारा ही यवमध्य की सिद्धि हो जाती है फिर भी किस वृद्धि या हानि से यवमध्यका प्रारम्भ और समाप्ति होती है इस तथ्यका निर्देश करने के लिए यवमध्यप्ररूपणा पृथक् से की गई है। पर्यवसान प्ररूपणा-- सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव के जघन्य अनुभागस्थान से लेकर समस्त स्थानों में अनन्त गुण के उपर अनन्तगुणा होना यह इस प्ररूपणा में बतलाया गया है। अल्पबहुत्वप्ररूपणा-इसमें अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर अनन्तगुण वृद्धिस्थान और असंख्यात गुणवृद्धिस्थान आदि कौन कितने होते हैं इसका ऊहापोह किया गया है। इस प्रकार उक्त बारह अधिकारों द्वारा अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानों का ऊहापोह करने के बाद जीव समुदाहार सम्बन्धी आठ अनुयोग द्वारोंका ऊहापोह किया गया है । वे आठ अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं--- एकस्थान जीव प्रमाणानुगम, निरन्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, सान्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, नाना जीव कालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, और अल्पबहुत्व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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