Book Title: Mahabandh
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
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महाबंध प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथा सम्भव उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामों से होता है, इसलिए शुभ और अशुभ इन सब प्रकृतियों की स्थिति अशुभ ही मानी गई है। मात्र पूर्वोक्त तीन आयुओं का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथा सम्भव तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामों से होता है, इसलिए इन तीन आयुओं की उत्कृष्ट स्थिति शुभ मानी गई है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि उक्त ११७ प्रकृतियों में से जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सातावेदनीय के बन्ध काल में होता है वहाँ उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य संक्लेश का अर्थ सातावेदनीय के बन्ध योग्य जघन्य या तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धि के अन्तर्गत संक्लेश परिणाम लिया गया है । तथा जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असातावेदनीय के बन्ध काल में होता है वहाँ उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य संक्लेश का अर्थ असातावेदनीय के बन्ध योग्य उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश के अन्तर्गत संक्लेश परिणाम लिया गया है । इन ११७ प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष तीन आयुओं का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथास्थान सातावेदनीय के बन्ध योग्य तत्प्रायोग्य विशुद्धिरूप परिणामों के काल में होता है ।
यह सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामित्व का विचार है । सब प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामित्व का विचार करते समय यह विशेषरूप से ज्ञातव्य है कि जिन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणि के जीव करते हैं उनके लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है उनमें ' वे सर्व विशुद्ध होते हैं या तत्प्रायोग्य विशुद्ध होते हैं' इस प्रकार का कोई भी विशेषण नहीं दिया गया है । जब कि ऐसे जीवों के उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है । ऐसा क्यों किया गया है यह एक प्रश्न है ? समाधान यह है कि ये जीव शुद्धोपयोगी होते हैं, इसलिए इनके जितना कषायांश पाया जाता है वह सब अबुद्धिपूर्वक ही होता है । यही कारण है कि इन्हें उक्त प्रकार के कषायांश की अपेक्षा ' सर्व विशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध' विशेषण से विशेषित नहीं किया गया है। इतना अवश्य है कि इनके प्रति समय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हानि को लिए हुए वह कषायांश पाया अवश्य जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से उनके उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि का भी सद्भाव बतलाया गया है । शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामित्व के विषय में ऐसा समझना चाहिए कि जिन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध सातावेदनीय के बन्धकाल में होता है वहाँ उन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध के योग्य जो परिणाम होते हैं वे सातावेदनीय के बन्धयोग्य विशुद्धि की जाति के होते हैं और जिन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध असातावेदनीय के बन्धकाल में होता है वहाँ उन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध के योग्य जो परिणाम होते हैं वे असातावेदनीय के बन्धयोग्य संक्लेश परिणामों की जाति के होते हैं ।
यह सब प्रकृतियों के स्थितिबन्ध के स्वामित्व का विचार है । अन्य अनुयोग द्वारों का उहापोह इस आधार से कर लेना चाहिए, क्योंकि यह अनुयोगद्वार शेष अनुयोगद्वारों की योनि है ।
३. अनुभाग बन्ध
फल-दान शक्ति को अनुभाग कहते हैं । ज्ञानावरणादि मूल और उनकी उत्तर प्रकृतियों का बन्ध होने पर उनमें जो फलदान शक्ति प्राप्त होती है उसे अनुभाग बन्ध कहते हैं । वह मूल प्रकृति अनुभाग बन्ध
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