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किञ्चित् प्रास्ताविक यहां पर यह 'कुछ' शब्दका प्रयोग इसलिये हो रहा है कि यदि आज इस महतीप्रतिष्ठाप्राप्त और युग-युगान्तर तक विद्यमान रहने वाली सिंघी जैन ग्रन्थमालाके संस्थापक और प्राणपोषक ख० बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी विद्यमान होते तो उनको इससे भी अधिक आनन्दानुभव होता, जितना कि मुझको हो रहा है । पर दुर्भाग्यसे वे इस प्रकाशनको देखनेके लिये हमारे सम्मुख सदेह रूपमें विद्यमान नहीं हैं। इस लिये मेरी यह सन्तोषानुभूति 'कुछ' आन्तरिक खिन्नतासे संमिश्रित ही है। योगानुयोग, इन शब्दोंके लिखते समय, आज जुलाई मासकी ७ वीं तारीख पड रही है । इसी तारीखको आजसे १५ वर्ष (सन् १९४४ में) पूर्व, बाबू श्री बहादुर सिंहजीका दुःखद स्वर्गवास हुआ था। उनके स्वर्गवाससे मुझे जो आन्तरिक खेद हुआ उसका जिक्र मैंने अपने लिखे उनके संस्मरणात्मक निबन्धमें किया ही है। सिंघी जैन ग्रन्थमालाका जब कोई नया प्रकाशन प्रकट होता है और उसके विषयमें जब कमी मुझे 'यत्किश्चित् प्रास्ताविक' वक्तव्य लिखनेका अवसर आता है, तब मेरी आंखोंके सामने स्वर्गीय बाबूजीकी उस समय वाली वह तेजोमयी
आकृति आ कर उपस्थित हो जाती है, जब कि उनने और मैंने कई कई बार सायमें बैठ बैठ कर, प्रन्थमालाके बारेमें अनेक मनोरथ किये थे। दुर्दैवके कारण और हमारे दुर्भाग्यसे वे अपने मनोरथोंके अनुसार अधिक समय जीवित नहीं रह सके । इन पिछले १५ वर्षोंमें ग्रन्थमालामें जो अनेक महत्त्वके ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं और जिनके कारण आज यह ग्रन्थमाला आन्तरराष्ट्रीय ख्यातिको प्राप्त कर, विश्वके अनेक विद्वानों एवं प्रतिष्ठानोंका समादर प्राप्त करने वाली जो बनी है, इसके यदि वे प्रत्यक्ष साक्षी रहते, तो मैं अपनेको बहुत ही अधिक सन्तुष्ट मानता ।
पर, बाबूजीकी अनुपस्थितिमें, उनके सुपुत्र बाबू श्री राजेन्द्र सिंहजी सिंघी और श्री नरेन्द्र सिंहजी सिंघी अपने पूज्य पिताकी पुण्यस्मृतिको चिरस्थायी करनेके लिये, उनकी मृत्युके बाद, आज तक जो इस प्रन्थमालाके कार्यका यथाशक्य संरक्षण और परिपोषण करते आ रहे हैं, इससे मुझे बाबूजीके अभावके खेदमें अवश्य 'कुछ' सन्तोष भी मिलता ही रहा है । यदि इन सिंघी बन्धुओंकी इस प्रकारकी उदार सहानुभूति और आर्थिक सहायता चालू न रहती, तो यह कुवलयमाला भी, आज शायद, इस ग्रन्थमालाका एक मूल्यवान् मणि न बन पाती । इसके लिये मैं इन सिंघी बन्धुओंका भी हृदयसे कृतज्ञ हूं। मैं आशा रखता हूं कि भविष्यमें भी ये बन्धु अपने पूज्य पिताकी पवित्रतम स्मृति और कल्याणकारी भावनाको परिपुष्ट करते रहेंगे और उसके द्वारा ये अपने दिवंगत पिताके स्वर्गीय आशीर्वाद सदैव प्राप्त करते रहेंगे।
अन्तमें मैं कुवलयमालाकारकी अन्तिम आशीर्वादात्मक गाथा ही को यहां उद्धृत करके अपनी इस कुवलयमालाके प्रकाशनकी कथाको पूर्ण करता हूं।
इय एस समत्त चिय हिरिदेवीए वरप्पसारण । कइणो होउ पसण्णा इच्छियफलया य संघस्स ॥
अनेकान्त विहार, अहमदाबाद
जुलाई , सन् १९५९ आषाढ शुक्ला १, सं. २०१५
-मुनि जिन विजय
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