Book Title: Karmagrantha Karmaprakruti Panchasangraha
Author(s): Hemchandracharya Granthamala Ahmedabad
Publisher: Hemchandracharya Granthamala Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 273
________________ (२६८) परिभोगमईणं तो विरियस्स असेढिगा घाई ॥५९॥ संजमघाईण तो अंतरमुदओ उ जाण दोण्हं तु । वेयकसायण्णयरे सोदयतुल्लाय पढमठिई ॥६०॥ थीअपुमोदयकाला संखेजगुणो उ पुरिसवेयस्स । तस्स वि विसेसअहिओ कोहे तत्तो वि जहकमसो ॥६१। अंतकरणेण समं ठितिखंडगबंधगद्धनिप्फत्ती। अंतरकरणाणंतरसमये जायंति सत्त इमे ॥२॥ एगट्ठाणणुभागो बंधो उद्दीरणा य संखसमा । अणुपुव्वीसंकमणं लोहस्स असंकमो मोहे ॥६॥ बद्धं बद्धं छसु आवलीसु उवरेणुदीरणं एइ । पंडगवेउवसमणा असंखगुणाए जावंतं ॥४॥ अंतरकरणपविहो संखासंखस मोह इयराणं । बंधादुत्तर बंध एवं इत्थीए संखसे ॥६५॥ उवसंते घाईणं संखेजसमा परेण संखसो। बन्धो सत्तण्हेव संखेजतमंमि उवसंते ॥ ६६ ॥ नाम गोयाण संखा बन्धो वासा असंखियो तइए। तो सव्वाण वि संखा तत्तो संखेजगुणहाणी ॥६७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302