Book Title: Kamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shivnarayan Saxena
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 112
________________ (९९) नियमन्तिये महाजस भत्तीराएण निश्चकालम्मि | तं कुण जिणमप्तिपरं बिल्लाबच्चं दसवियप्पं ॥ निज बल अनुसार महायश हे । रह भक्ति राग रत दिन प्रति दिन ॥ कर तू परम जिनेन्द्र भक्तिकोदशविध वैयावृत्य सुमुनि -- जन ॥ 5 Oh the great fortunate soul ! imbibe ( the spirit of) love and devotion according to your strnegth, Absorb your self in the devotion of Jinas (spiritual conquerors) and perform ten kinds of selfless service (callas) vaiyavratya ( सूक्ति नं० १०१ ) समाधि-शतक यह ८२ पृष्ठीय पुस्तक “समाधि शतक" आचार्य श्री पूज्यपाद (देवनन्दि ) स्वामी कृत है। इसका अंग्रेजी अनुवाद वाङ्गमय प्रदीप श्री रावजी नेमचन्द शाह सोढापुर निवासीने किया है । तथा हिन्दी में अनुवाद बाबू कामताप्रसादजी जैनने किया है। इस पुस्तक में मानवको परमात्माकी ओर जानेके लिए प्रेरित किया गया है । योगी अपने मन, मस्तिष्क, आत्मा और हृदयको इतना विकसित कर लेता है कि उसे बाह्य साधनोंकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वह तो दूर बैठे बैठे भी बड़े से बड़ा ज्ञानार्जन कर सकता है । अणुशक्तिके आविष्कार पर विश्वास करनेवाले व्यक्तियोंके far आध्यात्मिक सत्यकी पहचान करानेके लिए इस पुस्तकका बड़ा ही महत्व है । बाबूजी के शब्दोंमें इस पुस्तकका महत्व इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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