Book Title: Kalashamrut Part 5
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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૫૭૨
નાટક સમયસારના પદ बंधै एक रागादि असुद्ध उपयोगसौं ।।४।।
वजी - कर्मजाल-वर्गनाको वास लोकाकासमांहि,
मन-वच-कायको निवास गति आउमैं। चेतन अचेतनकी हिंसा वसै पुग्गलमैं,
विषैभोग वरतै उदैके उरझाउमैं ।। रागादिक सुद्धता असुद्धता है अलखकी,
यहै उपादान हेतु बंधके बढ़ाउमै। याहीरौं विचच्छन अबंध कह्यौ तिहूं काल,
राग दोष मोह नाहीं सम्यक सुभाउमैं ।।५।।
જો કે જ્ઞાની અબંધ છે તો પણ પુરુષાર્થ કરે છે. (સવૈયા એકત્રીસા) कर्मजाल-जोग हिंसा-भोगसौं न बंधै पै,
तथापि ग्याता उद्दिमी बखान्यौ जिन बैनमैं। ग्यानदिष्टि देत विषै-भोगनिसौं हेत दोऊ
क्रिया एक खेत यौं तौ बनै नांहि जैनमैं ।। उदै-बल उद्दिम गहै पै फलकौं न चहै,
निरदै दसा न होइ हिरदैके नैनमैं। आलस निरुद्दिमकी भूमिका मिथ्यात मांहि,
जहां न संभारै जीव मोह नींद सैनमैं ।।६।।
उयनी प्रवणता (El२) जब जाकौ जैसौ उदै, तब सो है तिहि थान। सकति मरोरै जीवकी, उदै महा बलवान ।।७।।

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