Book Title: Jinabhashita 2008 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे 91 97 दास-दास ही न रहे, सदा-सदा का दास। कनक, कनकपाषाण हो, ताप मिले प्रभु पास॥ 98 विजितमना हो फिर हुए, महामना जिनराज। हिम्मतवाला बन अरे! मतवाला मत आज॥ 92 रसना रस की ओर ना, जा जीवन अनमोल। गुरु-गुण गरिमा गा अरी! इसे न रस से तोल ॥ 93 चमक दमक की ओर तू, मत जा नयना मान। दुर्लभ जिनवर रूप का, निशि-दिन करता पान॥ 94 पके पत्र फल डाल पर, टिक ना सकते देर। मुमुक्षु क्यों ना? निकलता, घर से देर सबेर ॥ 95 नीरस हो पर कटुक ना, उलटी सो बच जाय। सूखा हो, रूखा नहीं, बिगड़ी सो बन जाय॥ 96 छुआछूत की बात क्या? सुनो और तो और। फरस रूप से शून्य हूँ, देखू, दिखू विभोर॥ आत्म-तोष में जी रहा, जिसके यश का नाप। शरद जलद की धवलिमा. लज्जित होती आप॥ 99 रस से रीता हूँ, रहा, ममता की ना गन्ध । सौरभ पीता हूँ सदा, समता का मकरन्द ॥ 100 तव-मम तव-मम कब मिटे, तरतमता का नाश। अन्धकार गहरा रहा, सूर्योदय ना पास॥ 101 बीना बारह क्षेत्र में, नदी बही सुख-चैन। ग्रीष्मकाल का योग है, मन लगता दिन-रैन। 102 गगन गन्ध गति गोत्र के, रंग पंचमी संग। सूर्योदय के उदय से, मम हो प्रभु सम रंग॥ अंकानां वामतो गतिः अनुसार गगन-0, गंध-2, गति-5,गोत्र-2 'सूर्योदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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