Book Title: Jinabhashita 2005 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ मंगलभावना ० आचार्य श्री विद्यासागर जी सागर सम गंभीर मैं बनूं चन्द्र-सम शान्त। गगन तुल्य स्वाश्रित रहूँ,हरूँ दीप-सम ध्वान्त ॥१॥ चिर संचित सब कर्म को, राख करूँ बन आग। तप्त आत्म को शान्त भी, करूँ बनूंगतराग॥२॥ तन मन को तप से तपा, स्वर्ण बनूँ छविमान। भक्त बनूँ भगवान् को, भजूं बनूँ भगवान् ॥ ३॥ भद्र बनूँ बस भद्रता, जीवन का श्रृंगार। दृव्य-दृष्टि में निहित है, सुख का वह संचार ॥४॥ लोकेषण की चाह ना, सर सख की ना प्यास। विद्यासागर बस बनूँ, करूँ स्वपद में वास॥ ५॥ फूल बिछाकर पन्थ में, पर-प्रति बन अनुकूल। शूल बिछाकर भूल से, मत बन तू प्रतिकूल ॥६॥ यम,दम,शम,सम तुम धरो, क्रमशः कम श्रम होय। नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ॥ ७॥ साधु बने समता धरो, समयसार का सार। गति पंचम मिलती तभी, मिटती हैं गति चार ॥ ८॥ स्वीक़त हो मम नमन ये, जय-जय-जय 'जयसेन'। जैन बना अब जिन बनूँ, मन रटता दिन रैन ॥९॥ साधु बनो, न स्वादु बनो, साध्य सिद्ध हो जाय। गमनागमन तभी मिटे, पाप-पुण्य खो जाय ॥१०॥ रत्नत्रय में रत रहो, रहो राग से दूर। विद्यासागर तुम बनो, सुख पावो भरपूर ॥ ११॥ गोमटेश के चरण में, नत हो बारम्बार। विद्यासागर मैं बनें. भव-सागर कर पार ॥ १२॥ यही तत्त्व दर्शन रहा, निज दर्शन का हेतु। जिन-दर्शन का सार है, भव-सागर का सेतु॥ १३॥ मेटे वाद-विवाद को, निर्विवाद स्याद्वाद। सब वादों को खुश करे, पुनि-पुनि कर संवाद ॥ १४॥ तजो रजो गुण-साम्य को, सजो भजो निज धर्म। शर्म मिले भव दुख मिटे, आशु मिटे वसु कर्म ॥ १५॥ शाश्वत निधि का धाम हो, क्यों बनता तू दीन। है उसको बस देख ले, निज में होकर लीन॥ १६॥ समय-समय 'पर' समय में, सविनय समता धार। समल संग सम्बन्ध तज, रम जा सुख पा सार ॥ १७॥ भव-भव भव-वन भ्रमित हो, भ्रमता-भ्रमता काल। बीता अनन्त वीर्य बिन, बिन सुख, बिन वृष-सार ॥१८॥ पर पद, निज पद, जान तज, पर पद, भज निज काम। परम पदारथ फल मिले, पल-पल जप निज नाम ॥१९॥ निज गुण कर्ता आत्म है, पर कर्ता पर आप। इस विधि जाने मुनि सभी, निज-रत हो तज पाप ॥२०॥ पाप प्रथम मिटता प्रथम, तजो पुण्य-फल भोग। पुनः पुण्य मिटता धरो, आतम-निर्मल योग॥ २१ ॥ राग-द्वेष अरु मोह से, रंजित वह उपयोग। वसु विध-विधि का नियम से, पाता दुख कर योग॥२२॥ विराग समकित मुनि लिए, जीता जीवन सार। कर्मास्रव से तब बचे, निज में करें विहार ॥ २३॥ रागादिक के हेतु को, तजते अम्बर छाँव। रागादिक पुनि मुनि मिटा, भजते संवर भाव॥ २४॥ । 'दोहादोहनशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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