Book Title: Jinabhashita 2004 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ सम्पादकीय दूरदर्शन पर जिनशासन के चीरहरण का दोषी कौन? "जिनभाषित' के गतांक में पं. मूलचन्द जी लुहाड़िया का सम्पादकीय "साधुओं का शिथिलाचार" प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने दूरदर्शन के 'आज तक' चैनल पर जुर्म' धारावाहिक में 'साधु या शैतान' शीर्षक के अन्तर्गत आचार्य विरागसागर जी को एक अपराधी के रूप में प्रदर्शित किये जाने पर क्षोभ व्यक्त किया है। जिनभाषित' के प्रस्तुत अंक में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् के मान्य अध्यक्ष एवं 'जैनगजट' के सुप्रसिद्ध सम्पादक पं. नरेन्द्रप्रकाश जी का भी इसी विषय पर लेख छाप रहे हैं। दोनों विद्वानों ने उपर्युक्त घटना के लिए सम्पूर्ण जैन समाज को दोषी ठहराया है। पं. मूलचन्द जी लुहाड़िया ने 'जिनभाषित' (नवम्बर 2004) के सम्पादकीय में लिखा है___"यदि हम गहराई से सोचें, तो दिगम्बर जैनधर्म की इस घोर कुप्रभावना के कारण हम स्वयं हैं। दिगम्बर जैन साधु के लिए हमारे शास्त्रों में स्थापित आचारसंहिता का अनेक आचार्यों एवं साधुओं के द्वारा दण्डनीय रूप से उल्लंघन किया गया है और हम उसका विरोध नहीं करके उसको प्रोत्साहित करने का अपराध करते हैं।.... विडम्बन यह है कि मुनियों के शिथिल आचरण की चर्चा करनेवालों को मुनिनिन्दक घोषित कर उनकी उपेक्षा की जाती है।" ___ 'उपेक्षा की जाती है' ये शब्द तो अहिंसक व्यवहार का द्योतन करते हैं । सत्य यह है कि यदि कोई परम मुनिभक्त भी, मुनियों को नवधाभक्तिपूर्वक आहार देनेवाला भी, किसी आगमविरुद्ध आचरण करनेवाले मनि के विरोध में कछ कहता-लिखता है, तो उस पर 'मुनिनिन्दक' एवं 'सोनगढ़ी' होने का आरोप लगाकर उसे आतंकित किया जाता है और सभाएँ आयोजित कर उसकी निन्दा और बहिष्कार के प्रस्ताव पारित किये जाते हैं। मान्य पं. नरेन्द्रप्रकाश जी ने यथार्थ शब्दों का प्रयोग किया है। वे लिखते हैं कि, "यदि साधु के बारे में कुछ प्रतिकूल कह दिया जाए, तो उनके विवेकशून्य भक्त उनका(प्रतिकूल कहनेवालों का) मुण्डन करने को तैयार रहते हैं।'' (देखिए प्रस्तुत अंक में प्रकाशित लेख)। वस्तुतः मुनियों और आर्यिकाओं के शिथिलाचार को दुराचार की हद तक पहुँचाने और उसे टीवी-प्रसारण द्वारा दुनिया को दिखाने एवं दुनिया में जिनशासन की नाक कटाने की नौबत लाने के लिए ऐसे ही श्रावक पहले नम्बर पर जिम्मेवार हैं। और 'मुनि कैसउ होय हमें का हानि' तथा 'ढकी-मुँदी रहने दो भैया, चलो-चलन दो ढला-चला' की नीति अपनाकर शिथिलाचार पर मौन रहनेवाले श्रावक दूसरे नम्बर पर जिम्मेवार हैं । इस प्रकार के व्यवहार की दु:खद घटना ब्रह्मचारिणी क्रान्ति जैन ने 12.12.03 को श्री आर.के. बंसल नोटरी तहसील-मवाना के द्वारा प्रमाणित अपने शपथपत्र में वर्णित की है। वे लिखती हैं, "मैंने विरागसागर के कुकृत्यों की अनेकों बार शिकायत समाज के कर्णधारों एवं समाज की संस्थाओं से की, लेकिन उल्टा संस्थाएँ एवं समाज के कर्णधार हमें ही चुप रहने के लिए विवश करते रहे।" ___पं. नरेन्द्रप्रकाश जी ने 'जैनगजट' (18 नवम्बर 2004.) के संपादकीय में उपर्युक्त टीवी-घटना के विषय में लिखा है, "किसी दुर्घटना पर स्यापा करने से कुछ नहीं होगा। हमें मामले की तह तक जाकर असली सच को सामने लाने का साहस दिखाना होगा।" मेरा भी यही मत है। ____ यह मामूली बात नहीं है कि ब्र. इन्द्रकुमार पोटी अपने गुरु आचार्य श्री विरागसागर जी से अलग होकर लगभग चार वर्षों से उन पर गंभीर आरोप लगाते आ रहे हैं। उन्हें विश्वास नहीं था कि गुरुमूढ़ता की हद तक पहुँचे हुए मुनिभक्त उनकी बात गंभीरता से सुनेंगे। इसलिए उन्होंने गुरुमूढ़ मुनिभक्तों के हृदय को धक्का पहुँचानेवाले उपाय अपनाये, शॉक ट्रीटमेन्ट का तरीका चुना। उन्होंने आरोपों का वर्णन करनेवाले रंगीन पोस्टर और कई पृष्ठोंवाले पत्र छपवाये, उन्हें मन्दिरों में चिपकवाया तथा समाज के नेताओं, मुनिसंघों और विद्वानों के पास भेजा। उनमें अनुरोध - दिसंबर 2004 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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