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अनुकम्पा और आस्तिक्य- भावरूप । इनका बहुत सुन्दर विवेचन करते हुए सम्यक्त्व के श्रद्धा, भक्ति आदि आठ
का वर्णन कर अंत में लिखा है कि जो एक अन्तर्मुहूर्त को भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं, वे भी अनन्त संसार को सान्त कर लेते हैं।
आ. वसुनन्दि ने सम्यक्त्व का स्वरूप बताकर कहा है कि उसके होने पर जीव में संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशमभाव, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण प्रकट होते हैं । वस्तुतः, सम्यक्त्वी पुरुष की पहिचान ही इन आठ गुणों से होती है।
सावयधम्मदोहाकार ने सम्यक्त्व की महिमा बताते हुए लिखा है कि जहाँ पर गरुड़ बैठा हो, वहाँ पर क्या विष-धर सर्प ठहर सकते हैं? इसी प्रकार जिसके हृदय में सम्यक्त्वगुण प्रकाशमान है, वहाँ पर क्या कर्म ठहर सकते हैं? अर्थात् शीघ्र ही निजीर्ण हो जाते हैं।
पं. आशाधर जी ने सम्यक्त्व की महत्ता बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति सर्वज्ञ की आज्ञा से 'इन्द्रिय-विषयजति सुख हेय है और आत्मिक सुख उपादेय है' ऐसा दृढ़ श्रद्धा करते हुए भी चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से वैषयिक सुखों का सेवन करता है और दूसरों को पीड़ा भी पहुँचाता है, फिर भी इन कार्यों को बुरा जानकर अपनी आलोचना, निन्दा और गर्हा करता है, वह अविरत सम्यक्त्वी भी पापफल से अतिसन्तप्त नहीं होता है। जैसे कि चोरी को बुरा कार्य मानने वाला भी चोर कुटुम्ब - पालनादिसे विवश होकर चोरी करता है और कोतवाल द्वारा पकड़े जाने पर तथा मार-पीट से पीड़ित होने पर अपने निन्द्य कार्य की निन्दा करता है, तो वह भी अधिक दण्ड से दण्डित नहीं होता है।
पं. मेधावी जी ने उक्त बात का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक मुहूर्तमात्र भी सम्यक्त्व को धारण कर छोड़नेवाला जीव भी दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। साथ ही यह भी कहा है कि आठ अंगों और प्रशम- संवेगादि भावों से ही सम्यक्त्वी की पहचान होती है।
आ. सकलकीर्ति जी ने लिखा है कि सम्यक्त्व के बिना व्रत-तपादि से मोक्ष नहीं मिलता। आ. गुणभूषण जी ने आ. समन्तभद्रादि के समान सम्यक्त्व का वर्णन कर अन्त में कहा है कि जिसके केवल सम्यक्त्व भी उत्पन्न हो जाता है, उसका नीचे के छह नरकों में, भवनत्रिक देवों में, स्त्रियों में, कर्मभूमिज तिर्यंचों एवं दीन-दरिद्री मनुष्यों में जन्म नहीं 16 दिसंबर 2004 जिनभाषित
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होता ।
पं. राजमल्ल जी ने सम्यक्त्व का जैसा अपूर्व सांगोपांग सूक्ष्म वर्णन किया है, वह श्रावकाचारों में, तो क्या, करणानुयोग या द्रव्यानुयोग के किसी भी शास्त्र में दृष्टि- गोचर नहीं होता । सम्यक्त्व - विषयक उनका यह समग्र विवेचन पढ़कर मनन करने के योग्य है। प्रशम-संवेगादि गुणों का विशद वर्णन करते हुए लिखा है कि ये बाह्य सम्यक्त्व के लक्षण हैं। यदि वे सम्यक्त्व के बिना हों, तो उन्हें प्रशमाभास आदि जानना चाहिए ।
उमास्वामि-श्रावकाचार में रत्नकरण्डक, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि पूर्व- रचित श्रावकाचारों के अनुसार ही सम्यग्दर्शन, उसके अंगों का भेद, महिमा आदि का वर्णन करते हुए लिखा है कि हृदयस्थित सम्यक्त्व निःशंकितादि आठ अंगों से जाना जाता है। इस श्रावकाचार में प्रशम, संवेग आदि
स्वरूप का विशद वर्णन किया गया है और अन्त में लिखा है कि जिसके हृदय में इन आठ गुणों से युक्त सम्यक्त्व स्थित है, उसके घर में निरन्तर निर्मल लक्ष्मी निवास करती है ।
पूज्यपाद श्रावकाचार में कहा गया है कि जैसे भवन का मूलआधार नींव है, उसी प्रकार सर्व व्रतों का मूल आधार सम्यक्त्व है । व्रतसारश्रावकाचार में भी यही कहा गया है । व्रतोद्योतन श्रावकाचार में कहा है कि सम्यग्दर्शन
बिना व्रत, समिति और गुप्तिरूप तेरह प्रकार का चारित्र धारण करना निरर्थक है। श्रावकाचारसारोद्धार में, तो रत्नकरण्ड के अनेक श्लोक उद्धृत करके कहा गया है कि एक भी अंग से हीन सम्यक्त्व जन्म-सन्तति के छेदने में समर्थ नहीं है । पुरुषार्थानुशासन में कहा गया है कि सम्यक्त्व के बिना दीर्घकाल तक तपश्चरण करने पर भी मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है । इस प्रकार सभी श्रावकाचारों में सम्यक्त्व की जो महिमा का वर्णन किया गया है, उस पर रत्नकरण्ड का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है ।
स्वामी समन्तभद्र ने, तो सम्यक्त्व के आठों अंगों में प्रसिद्धि प्राप्त पुरुषों के नामों का केवल उल्लेख ही किया है, पर सोमदेव और उनसे परवर्ती अनेक आचार्यों ने, तो उनके कथनों का विस्तार से वर्णन भी किया है।
उपर्युक्त सर्व कथन का सार यह है कि प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को धर्म के मूल आधार सम्यक्त्व को सर्वप्रथम धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए और इसके लिए गुरुपदेश - श्रवण और तत्त्व - चिन्तन-मनन से आत्म-श्रद्धा
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