Book Title: Jinabhashita 2004 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ परामर्श देता हूँ। तुम लोग मेरे पास आकर बैठते हो, अच्छीअच्छी घरबाहर की खबरें सुनाते हो, तो मेरा भी मनोरंजन हो जाता है। घर के सभी सदस्यों में मैं अपने अनुभव बाँटता हूँ, ताकि वे कभी किसी के बहकावे में नहीं आ सकें, कोई उन्हें पराजित नहीं कर सके। हाँ, यदि कोई सलाह नहीं मानता, तो मैं विचलित भी नहीं होता। यह देखना मेरा काम नहीं है कि किसने मेरे परामर्श पर कितना अमल किया? तुम्हारी माँ मुझे अच्छे-से-अच्छा भोजन कराती है। तुम्हारे पिता और मैं दोनों प्रातः एकसाथ दर्शनपूजन हेतु जिनमन्दिर जाते हैं। एकसाथ अभिषेक पूजन और स्वाध्याय करने से हमें जो शांति मिलती है, वह अवर्णनीय है। ऐसा कह दादाजी रुक गये। 'अभय' की जिज्ञासायें बढ़ती ही जा रही थी। उसने पूछा- 'दादाजी ! हम सबके दुख का कारण क्या है?" यह सुन दादाजी ने जो बताया, वह अनुकरणीय था । वे बोले - पूर्वजन्म में हम सबने जो कुछ अच्छे कार्य किये होंगे, उनका यह प्रतिफल है। हमने प्रभूत सम्पदा भले ही न देखी हो, किन्तु जीवन में अभाव किसी चीज का नहीं रहा । आज भी हमारे परिवार में दान के संस्कार हैं। साधुओं के प्रति भक्ति है । यदि कोई साधु हमारे नगर में आते हैं, हम सब उन्हें आहार देते हैं, उनकी वैयावृत्ति करते हैं । जबतक साधु के आहार का काल नहीं निकल जाये तब तक हम भोजन ही नहीं करते। हम चाहते हैं कि साधुसंगति का सुयोग हमें मिलता रहे । प्रतिवर्ष एक-न-एक निर्वाण क्षेत्र की वन्दना तो हम लोग करते ही हैं। हमारे परिवार के यह संस्कार हैं कि यहाँ से कोई भी भूखा नहीं गया और यदि कोई दुखियारा आया, तो उसकी कुछ न कुछ मदद हम सबने अवश्य की। वास्तव में दान के संस्कारों ही हमें किसी वस्तु का अभाव नहीं होने दिया। जिस घर जन-भक्ति, साधु-सेवा और दान की परम्परा नहीं है, वह घर, घर नहीं, श्मशान के समान है, ऐसा हमारे आचार्य कहते हैं। बेटा, तुम भी अपनी इन परम्पराओं का पालन करना। ' 'हाँ दादाजी, ऐसा ही होगा।' ऐसा कहते हुए बालक अभय स्वयं में अत्यन्त गर्व महसूस कर रहा था कि उसे ऐसे धर्मपरायण एवं संस्कारित परिवार में जन्म मिला। उसे लगा कि जीना इसी का नाम है, जिसमें जिन्दगी का आनन्द भी हो और स्वपरोपकार की भावना भी हो। काश, सबका जीवन हमारे दादाजी - जैसा होता? सम्पर्क - एल - 65, न्यू इन्दिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.) श्री शांतिलाल जी दिवाकर, सिवनी (म. प्र. ) का देहावसान मध्यप्रदेश की पावन धरा सिवनी नगर जो सम्पूर्ण भारत वर्ष में विद्वानों की नगरी के रूप में विख्यात है। ऐसी ही पावन धर्म नगरी की पुण्य धरा पर प्रतिष्ठित दिवाकर परिवार में श्रीयुत स्व. सि. कुंवरसेन जी दिवाकर के यहाँ दिनांक 22 नवम्बर 1923 को एक नररत्न ने जन्म लिया जो आगे चलकर श्री शांतिलाल दिवाकर के नाम से विख्यात हुए । दीपावली के पावन दिवस पर दिनांक 12 नवम्बर 04 शनिवार को प्रातःकाल भगवान महावीर एवं णमोकार मंत्रराज का श्रवण एवं चिन्तवन करते हुए उन्होंने राजधानी भोपाल में अपनी इस नश्वर देह का परित्याग किया। जैनधर्म के मूर्धन्य उद्भट विद्वान् एवं चारित्र - चक्रवर्ती (आ. श्री शांतिसागर जी महराज के जीवन-चरित्र) महाग्रंथ के रचयिता, विद्वतरत्न, जिनशासन रत्न, धर्मदिवाकर, विद्या - वारिधि, न्याय तीर्थ शास्त्री आदि महान उपाधि से विभूषित स्व. पं. श्री सुमेरुचंद जी दिवाकर आपके अग्रज थे। वर्तमान में आपके अनुज एवं विद्वान् पं. श्री श्रेयांस जी दिवाकर एवं प्रख्यात अधिवक्ता श्री अभिनंदन कुमार जी दिवाकर सिवनी में निवासरत हैं । आपके सुपत्र श्री ऋषभकुमार जी दिवाकर मध्यप्रदेश के उच्च ए. डी. जी. पोलिस के विशिष्ट पद पर आसीन हैं। श्री दिवाकर जी के स्वगवास पर दिनांक 14 नवम्बर 04 को श्री दिगम्बर जैन मंदिर हबीबगंज भोपाल के सभागार में एक शोक सभा का आयोजन किया गया। जिसमें भोपाल के समस्त दिगम्बर जैन मंदिरों के पदाधिकारी एवं सदस्यगणों ने दिवंगत आत्मा के प्रति अपनी शोक संवेदनायें प्रगट कर श्रद्धांजलि अर्पित की। Jain Education International अंत में आपकी धार्मिकता, सामाजिकता, विद्वत्ता, सरलता, सौम्यता एवं श्री देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा जनमानस को नई दिशा प्रदान कर प्रकाशस्तम्भ का कार्य करती रहेगी। For Private & Personal Use Only पारस जैन, शांति सदन, सिवनी (म. प्र. ) दिसंबर 2004 जिनभाषित 25 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36