Book Title: Jinabhashita 2004 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ से संलग्न करने की व्यवस्था की जाय। यदि उक्त गुरु इसके लिए तैयार न हों, तो उन्हें मुनिपद से च्युत कर दिया जाय और सभी जैन पत्र-पत्रिकाओं में पदच्युति की खबर प्रकाशित कर दी जाय, ताकि भारत का सम्पूर्ण जैनसमाज इस निर्णय से अवगत हो जाय और उनकी वन्दना-भक्ति बन्द कर दे। इसके विपरीत यदि उन पर लगाये गये आरोप मिथ्या सिद्ध होते हैं, तो आरोप लगानेवाली आर्यिकाओं और ब्र.पोटी को भी किसी आचार्य के द्वारा ऐसा ही दंड दिलाया जाय अथवा उनके उक्त पदों की मान्यता समाप्त कर दी जाय तथा सभी जैन समाचारपत्रों में यह समाचार छपवा दिया जाय कि आचार्य विरागसागर जी पर उनके शिष्यशिष्याओं द्वारा लगाये गये आरोप मिथ्या हैं। इसके अतिरिक्त 'आज तक' टीवी चैनल पर कानूनी कार्यवाही की जाय और उसे आचार्य विरागसागर जी की निर्दोषता दर्शानेवाला नया समाचार बनाकर टीवी पर दिखाने के लिए बाध्य किया जाय। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण समाज मिलकर यह निर्णय भी करे कि किसी भी मुनिसंघ के साथ आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों को न रहने दिया जाय। आर्यिकाएँ आचार्यों से दीक्षा प्राप्त करें, उन्हीं से सम्बद्ध रहें, पर उनके अलग संघ बनें और मुनिसंघों से अलग रहकर धर्मसाधना करें। जब आवश्यक मार्गदर्शन प्राप्त करना हो, तभी अल्प समय के लिए आचार्य के पास आवें किन्तु तब भी उनकी वसतिका मुनियों की वसतिका से बहुत दूर रहे। इससे उपर्युक्त प्रकार के पतन का अवसर ही नहीं रहेगा। रतनचन्द्र जैन धन का मद डॉ. जगदीश चन्द्र जैन बहुत दिनों की बात है। कोई बूढ़ा गृहस्थ अपनी जवान स्त्री और पुत्र के साथ रहता था । । एक दिन गृहस्थ ने सोचा- मेरी स्त्री जवान है। सम्भव है, मेरे मरने के बाद वह किसी अन्य पुरुष से विवाह कर ले, मेरी सब धन-दौलत खर्च कर डाले और मेरा पुत्र धन से वंचित रह जाय। अतएव मैं क्यों न धन को धरती में गाड़ कर रख दूं? यह सोचकर गृहस्थ नन्द नामक अपने दास को लेकर जंगल में गया। अपने धन को उसने धरती में गाड़ दिया। तत्पश्चात नन्द से कहा 'तात नन्द! देख, मेरे मरने के बाद मेरे पुत्र को यह धन दिखा देना।' कुछ दिन बाद गृहस्थ मर गया। एक दिन उस की स्त्री ने अपने बेटे से कहा- 'तात, तुम्हारे पिता नन्द को बताकर जंगल में तुम्हारे लिए धन गाड़ गये हैं । उसे निकालकर कुटुम्ब का पालन कर।' कुमार ने नन्द को बुलाकर कहा- 'मामा! तुम्हें मालूम है, मेरे पिता ने धन कहाँ गाड़ कर रखा है?' 'हाँ, स्वामिन् मुझे मालूम है। धन जंगल में है।' 'चलो, उसे खोदकर ले आयें।' यह कहकर दोनों कुदाली और टोकरी लेकर जंगल में पहुँचे। कुमार-मामा! धन कहाँ गड़ा हुआ है? नन्द धन के गड्ढे के ऊपर खड़ा होकर अभिमान से बोला- 'अरे दासीपुत्र चेटक! तेरा धन यहाँ कहाँ से आया?' कुमार ने उस बात पर कोई ध्यान न दिया। वह घर लौट आया। दो-तीन दिन बाद कुमार फिर नन्द को लेकर वहाँ गया। नन्द फिर पहले दिन की तरह गालियाँ बकने लगा। कुमार ने नन्द से फिर कुछ नहीं कहा। वह घर आकर सोचने लगा- यह दास हर बार कहता है कि अब की बार धन का पता बताऊँगा, लेकिन न जाने क्यों जंगल में पहुँचते ही मुझे गालियाँ देने लगता है? कुमार का एक मित्र था। उसने उसके पास जाकर सब बातें कहीं। मित्र ने कहा- 'तात! चिन्ता न करो। देखो, जिस जगह खड़ा होकर वह गाली बकता है, उसी जगह धन गड़ा हुआ है। तुम वहाँ कुदाली से खोदकर धन निकाल लेना।' कुमार ने ऐसा ही किया। 'प्राचीन भारत की श्रेष्ठ कहानियाँ' 8 दिसंबर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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