Book Title: Jinabhashita 2004 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ अपनी आँखों से अपने गुरु तथा कनिष्ठ आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों को पतन के गर्त में जाते हुए देखती रहीं, पर संघ से निकाल दिये जाने पर दर-दर की ठोकरें खाने के भय से अथवा जान से मार दिये जाने के डर से इस पतन के खिलाफ मुँह खोलने का साहस न कर सकीं। इस प्रकार उन्होंने सत्यमहाव्रत का भयंकर उल्लंघन किया है। 6. आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है 'असंजदं ण वंदे' अर्थात् संयमभ्रष्ट मुनियों की वंदना नहीं करनी चाहिए। अतः जब उक्त आर्यिकाओं को यह पता चल गया था कि उनका गुरु संयमभ्रष्ट है, तभी उन्हें उसका साथ छोड़ देना चाहिए था, किन्तु वे प्रताड़ना और मृत्यु के भय से अथवा भविष्य के अनिश्चित हो जाने के डर से बहुत दिनों तक ऐसा करने का साहस न जुटा सकीं और एक संयमभ्रष्ट (उनके अनुसार) पुरुष को गुरु के रूप में पूजती रहीं। 7. उन्होंने अपने गुरु पर मंत्रतंत्र द्वारा उन्हें वश में करने का आरोप लगाया है, किन्तु यदि गुरु मंत्रतंत्र जानते, तो अपने प्रबल विरोधी ब्रह्मचारी पोटी को वे कभी का वश में कर लेते और यदि ब्रह्मचारी पोटी को मंत्रतंत्र सिद्ध होता, तो वे भी अपने दुश्मन गुरु से अभी तक हिसाब-किताब बराबर कर चुके होते। आज गुरु अपनी अपकीर्ति को मंत्रतंत्र से नहीं बचा पा रहे हैं, तो उन्होंने किसी आर्यिका को मंत्रतंत्र के प्रयोग से वश में किया होगा या परेशान किया होगा, यह कहना-मानना अपनी इच्छा से किये गये पाप पर परदा डालना है। यदि आर्यिकाएँ और ब्रह्मचारिणियाँ अपने धर्म पर दृढ़ रहतीं, तो गुरु की मजाल नहीं थी कि वे उनके शरीर को हाथ भी लगा सकते, गुरु को लेने के देने पड़ जाते और वे चरित्रभ्रष्ट होने से भी बच जाते। सीता जी रावण की अधीनता में कई दिनों तक रहीं, लेकिन उनकी चारित्रिक दृढ़ता के कारण रावण उनका बाल भी बाँका नहीं कर सका। इस प्रकार इन आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों ने अपने गुरु पर जिन पापों के आरोप लगाये हैं, यदि वे सत्य हैं, तो उनमें इनकी भी पूरी-पूरी सहभागिता है। कहावत भी है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती। किन्तु गुरु का अपराध सबसे ज्यादा है, क्योंकि वे आचार्यपद पर आसीन हैं। अपने शिष्य-शिष्याओं को आचार का पालन तो उन्हें ही कराना होता है। किन्तु जब वे ही आचारभ्रष्ट हों, तो उनके द्वारा शिष्य-शिष्याओं को आचारपालन की प्रेरणा मिलना असंभव है। कमजोर शिष्यों का स्वभाव शिथिलाचार की ओर जाने का होता है। आचार्य के भ्रष्ट होने से ऐसे शिष्यों का शिथिलाचार की ओर गमन निर्बाध हो जाता है। और जब रक्षक ही भक्षक बन जाय, तब कमजोर शिष्य-शिष्याओं का पतन सुनिश्चित है। किन्तु उक्त आर्यिकाओं के गुरु का आचारभ्रष्ट होना अभी प्रमाणित नहीं हुआ है। उसका निर्णय जाँचसमिति करेगी। लेकिन उन आर्यिकाओं का अपराध प्रमाणित हो चुका है, जिन्होंने अपने गुरु पर आरोपित अपराधों को जैनसमाज के गण्यमान्य पुरुषों के समक्ष प्रकट न कर, टीवी-धारावाहिक में प्रकट किया है। इससे उन्होंने अपने गुरु को सारी दुनिया में बदनाम करने का उद्देश्य तो पूरा कर लिया, किन्तु स्वयं को भी भ्रष्ट आर्यिकाओं के रूप में बदनाम कर लिया है। और उन्होंने न केवल एक जैनमुनि के और स्वयं के मुंह पर सारी दुनिया के सामने कालिख पोती है, बल्कि समस्त दिगम्बर जैन मुनियों और आर्यिकाओं तथा निर्मल जिनशासन को एक घिनौने रूप में दुनिया के सामने पेश किया है। यह जिनशासन के प्रति उनका अक्षम्य अपराध है। यह अवश्य है कि इसके पीछे उनकी अपनी बुद्धि नहीं थी, अपितु ब्रह्मचारी पोटी का दिमाग था, अत: वे भी उतने ही दोषी हैं, जितनी उक्त आर्यिकाएँ। किन्तु इस शर्मनाक घटना के लिए ब्रह्मचारी पोटी से अधिक संपूर्ण जैनसमाज दोषी है। इसका खुलासा पोटी द्वारा समाज के गण्यमान्य पुरुषों के पास प्रेषित उपान्त्यपत्र के निम्नलिखित अंशों से हो जाता है____ "मैंने बहुत नम्र निवेदन किये, प्रार्थना की, विनय की, फिर चेतावनी भी दी। पर जहाँ सत्य को इस तरह अनदेखा किया जाता हो, जैसे कि देदीप्यमानसूर्य को देख उल्लू आँखें मींच लेता है, वहाँ अब निवेदन और चेतावनी से काम चलनेवाला नहीं है, वहाँ सिंह की गर्जनाद की, तूफान की आवश्यकता है। अब ऐसा तूफान आयेगा कि सब मुनियों और समाज व धर्म के ठेकेदारों का भारत की सड़कों और गलियों पर निकलना अति कठिन हो जायेगा, जैन धर्म के श्रमणों और श्रावकों की कायरता की कहानी सड़कों पर गन्दी गालियों के साथ सुनने को मिलेगी, तब अक्ल आयेगी।" 6 दिसंबर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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