Book Title: Jambudwip Part 01
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ १८ * जम्बूद्वीप चेतना उसी प्रकार प्राविभूत होती है जैसे लोक में दैहिकवादियों की दृष्टि से सृष्टि के पदार्थों चूना, कत्था, सुपारी और ताम्बूल के योग से लाल का स्वभाव निश्चित है । स्वभावभूत क्रियाशीलता रंग का प्राविर्भाव होता है, यद्यपि ताम्बूल, चूना से प्राबद्ध होकर ही चतुर्महाभूतों की भिन्न-भिन्न और सुपारी में से किसी भी द्रव्य का स्वभावतः परिणति होती है। सृष्टि अपने ही क्रम से अपने लाल रंग नहीं होता । इसी तरह पृथ्वी, जल, ही स्वभाव के वशीभूत होकर सृजित होती है और तेज और वायु चैतन्य-स्वभावी नहीं है तथापि विनष्ट भी होती रहती है। इस जगत् के निर्माण इनके योग से निर्मित शरीर में चेतना का उद्भव का, इन स्वभावभूत पदार्थों के अतिरिक्त कोई होता है। अपनी इस धारणा के समर्थन में वे निर्माता कल्पित करना समीचीन नहीं है । यहाँ जो अन्य उदाहरण देकर कहते हैं कि और भी अन्य शुभ देखा जाता है वह पदार्थों की स्वभावशीलता अनेक ऐसे मादक द्रव्य हैं, जिनमें विविध पदार्थों से घटित होता है। यहाँ जो अशुभ देखा जाता है के मिश्रण से मादकता उत्पन्न होती है जबकि उन वह भी पदार्थों की स्वभाववश्यता से घटित होता मादक द्रव्यों में मिश्रित पृथक्-पृथक् पदार्थ का है। जगत् की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति के लिए स्वभाव मादक नहीं होता किसी कारणभूत तत्त्व की न तो अपेक्षा होती है जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्त दृश्यते । और न किसी तर्क से ऐसा सिद्ध किया जा सकता ताम्बल-पूग-चूर्णानां योगावाग इवोत्थितः॥ है, कि कोई पृथक् कारण जो महाभूत स्वभावी न हो (स०सि०सं०, २/७) इस जगत् के निर्माण-विनाश में कारण हो सकता माध्वाचार्य ने लोकव्यवहार में प्रचलित 'प्रहं है। यह पृथ्वी जल तेजादि की स्वभावश्यता ही सूखी', 'अहं दुःखी' जैसे वाक-व्यवहारों की संगति है कि जल में शीतलता की अनुभूति होती है और पर विचार करते हुए कहा कि ऐसे वाक्यों से भी अग्नि में उष्णता की। जल-पान से तृप्ति और 'अहं' पद से शरीर का ही बोध होता है, क्योंकि सन्तोष की अनुभूति होती है, जब कि अग्नि के सुख और दुःख शरीर धर्म हैं। इन वाक-व्यवहारों स्पर्श से कष्ट तथा दाह की प्रतीति होती है। की प्रात्मवादियों के प्रात्मतत्त्व से सुसंगति इसलिए एतदर्थ ऐसा कोई महाभूतारिक्त कर्ता नहीं है नहीं हो सकती, क्योंकि सत्-चित् और आनन्दरूप जो जल में शीतलता और अग्नि में दाहकता का प्रात्मा में सुख और दुख की व्याप्ति का व्यवहार सृजन करता हो । पदार्थों की यह विचित्रता कि असम्भव होगा ( स० द० सं०, पृ० १०)। यही अग्नि से जल सूखता है और जल से अग्नि शान्त आग्न स जल सूखता हा कारण है कि 'राहो शिरः' जैसे वाक्य राह के होती है, जो उनके स्वभाव वैचित्र्य को और उन शिरमात्र होने पर भी केवल इसलिए संगत हैं की स्वभाववश्यता को ही प्रगट करती है । इसी का स्वभाववश्यता का हा क्योंकि ऐसे वाक्यों में लोकव्यवहार चलता है। लिए व यह स्वाकार नहा इसी तरह चार्वाक 'देवदत्तो मृतः', 'ममदेही' जैसे की सृजन-परम्परा में अथवा इसकी विनश्यता में कथनों में देवदत्त और मम पद से देह अर्थ ही कोई आदि कारण विद्यमान हो सकता है। समझते हैं, देहातिरिक्त प्रात्मा आदि नहीं—प्रथैषां (बु०च०, ६।४८-५१) । कायाकारपरिणतौ चैतन्याभिव्यक्ती सत्यां तवं यही कारण है कि चार्वाकों की दृष्टि से न तेषामन्यतमस्य विनाशे अपगमे वायोस्तेजश्चो- तो किसी का पुनर्जन्म होता है और न ही देह के भयोर्वा देहिनो देववत्ताख्यस्य “विनाशः' अपगमो अतिरिक्त कोई ऐसा क्रियाकारक है, जिसे अपने भवति, ततश्च मृत इति व्यपदेशः प्रवर्तते, न पुनः द्वारा किये गये कुशल-अकुशल कर्मों का भोग इस जीवापगम इति । .. (सू०शी०, १।१।१७) जन्म में अथवा अपरजन्म में करना पड़ता हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102