Book Title: Jambudwip Part 01
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ खगोलीय चिन्तन के परिप्रेक्ष्य मेंभ-भमण के विज्ञानवाद-सम्मत तर्कों की समीक्षा 0 डा० रुद्रदेव त्रिपाठी जयपुर [आधुनिक विज्ञानवादियों की मान्यता के 'सप्तर्षि के तारे ही ध्रुव के तारे की चारों ओर अनुसार पृथ्वी की गतिशीलता को सिद्ध करने के घूमते हैं । सम्बन्ध में वे जिन उदाहरणों और प्रमाणों को सप्तर्षि के सात ताराओं में से आगे के दो प्रस्तुत करते हैं, उनमें खगोलीय तारामण्डल के तारे ध्रव के तारे के सम्मुख समान्तर सीधी रेखा सदस्य-सप्तषि-तारक-को भी प्राधार बनाया जाता रखकर घूमते हैं तथा शेष अन्य तारे उनकी ओर है। किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों का पूंछ के समान आगे के दो तारों के पीछे घूमते हैं। ही पुनः परीक्षण करने पर वे निरर्थक प्रतीत होते हैं और उनकी मान्यता की भित्ति मूल से ही आगे के दो तारों में से पहले एक तारे का डगमगाने लगती है। इस दृष्टि से प्रस्तुत लेख में भ्रमणक्षेत्र सब से छोटा है, दूसरे तारे का भ्रमणकतिपय मननीय तर्क पाठकों के लिये उपस्थित किये क्षेत्र पहले तारे की अपेक्षा बड़ा है और शेष सब जा रहे हैं।] तारों का भ्रमणक्षेत्र एक-एक की अपेक्षा क्रमशः सप्तर्षि के तारे बढ़ता जाता है। अन्तिम तारे का भ्रमणक्षेत्र सब यह कहा जाता है कि सप्तर्षि के तारानों की से बड़ा है। गति भी चन्द्र के समान वर्तुलाकार है। सप्तर्षि सप्तर्षि के तारे अपने भ्रमणकाल के मध्य म के तारे ध्रव के तारे के आसपास घूमते हैं। इनमें एक ही रात्रि में दिशाएँ भी बदलते हैं। उदाहरण 'पहले के दो तारे ध्रव के सम्मुख सीधी रेखा में रहें के लिये फाल्गून शुक्ल १५ को लगभग सप्तर्षि का इस प्रकार भ्रमण करते हैं । चन्द्र की गति वतुला- पहला तारा रात्रि के प्रारम्भकाल में ध्रव के तारे कार होने पर भी सक्ष्म निरीक्षण किये बिना की पूर्व दिशा में ( लगभग पूर्व दिशा में ) दिखाई उसका पूर्णतः ज्ञान नहीं होता है। परन्तु सप्तर्षि देता है। दूसरा तारा भी ध्रव के तारे और पहले का तारा कुछ ध्यान देकर देखा जाय तो शीघ्र तारे की समान्तर रेखा में प्रायः पूर्व दिशा की ओर ही ज्ञात हो जाता है कि उसकी गति ध्रुव तारे के रहता है, तथा शेष अन्य उत्तरदिशा की ओर आसपास वर्तुलाकार है। ढलते रहते हैं। मध्यरात्रि में ये दिशाएं पलट कर - रात्रि के प्रारम्भ के समय में पूर्वाकाश में सप्तर्षि का प्रथम तारा ध्रुवतारे की दक्षिण दिशा दिखाई देने वाले तारे चन्द्र आदि का रात्रि पूर्ण में प्राता है । सप्तर्षि का दूसरा तारा भी ध्रव के होने के समय प्रातः काल में पश्चिमाकाश में तारे और सप्तर्षि के प्रथम तारे की समान्तर रेखा दिखाई देने का कारण 'पृथ्वी घूमती है' ऐसा जो में दक्षिणदिशा की ओर दिखाई देता है और अन्य बताया जाता है वह कारण यहां टिक नहीं सकता। तारे पूर्व दिशा की ओर ढलते हुए रहते हैं। रात्रि क्योंकि यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि पूरी होने के समय प्रात: सप्तर्षि का पहला तारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102