Book Title: Jambudwip Part 01
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 72
________________ सूर्य तथा पृथ्वी सम्बन्धी"* . २१ जहां दिनके अन्त में सूर्य का तिरोभाव होता है क्रमेण येन पीतोऽसौ देवस्तेन निशाकरम् । वहीं उसका अस्त कहा जाता है। सर्वदा एक रूप अप्यायत्यनुदिनं भास्करो वारितस्करः॥ से स्थित सूर्य देव का वास्तव में न उदय होता है विष्णुपुराण २।१२।४-५ और न अस्त । बस, उसका दीखना और न ज्योतिष के प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थ सूर्यदीखना ही उसके उदय और अस्त हैं। सिद्धान्त में स्पष्ट ही बताया गया है कि पृथ्वी विदिशासु त्वशेषासु तथा ब्रह्मन् दिशासु च । आकाश में ब्रह्म की धारणात्मिका शक्ति से टिकी यैर्यत्र दृश्यते भास्वान्स तेषामुदयः स्मृतः ।। तिरोभावं च यति तत्रैवास्तमनं रवेः । मध्ये समन्तादण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठति । नेवास्तमनर्घस्य नोदयः सर्वदा सतः ।। बिभ्राणः परमां शक्ति ब्रह्मणो धारणात्मिकाम् ।। उदयास्तमानाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः ।। १२।३२ विष्णुपुराण, २।८।१५-१७ यह वैज्ञानिक तथ्य उस पारम्परिक विवरण विष्णु पुराण में ही आदित्य के द्वादश रूपों से भिन्न है जिसके अनुसार पृथ्वी जल पर टिकी की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ये सभी हुई है। विष्णु के ही रूप हैं। और विष्णु का न कभी उदय होता है और न अस्त । स्तम्भ में लगे दर्पण सूर्य सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी गोल है। इस के समान जो कोई उनके निकट जाता है उसी को गोल पृथ्वी पर सब प्राणी स्वयं को उपरि स्थित अपनी छाया दिखाई देने लगती है। यहां स्पष्ट मानते हैं । पर वास्तव में आकाश में लटके गोल संकेत न होने पर भी यह तभी सम्भव है जब पृथ्वी में न तो ऊपर होता है और न नीचे। इस भ्रम के कारण ही समसूत्र पर जो भी स्थित है, वे भ्रमणशील हो । जब सूर्य स्थिर है और दिनरात परस्पर एक दूसरे को नीचे स्थित मानते हैं । यथा भी होता है। इसे ही पुराणकार कहता है कि सूर्य तो स्तम्भ में लगे दर्पण के समान स्थिर है। भद्राश्व और केतुमाल अथवा लंका और सिद्धपुर वासी। वास्तव में लोग लघुकाय होने से यह पृथ्वी का जो भाग इसके सामने पहच जाता है, वही प्रकाशित हो जाता है। तब पृथ्वी के उस धरती उन्हें अपने स्थान से चारों ओर चक्र सी चपटी दिखाई देती है । वास्तव में यह है गोल ही। भाग में दिन हो जाता है। यही कारण है कि जब भद्राश्व पर मध्याह्न होता नोदेता नास्तमेता च कदाचिच्छक्तिरूपधृक् । है तब भारत में सूर्योदय होता है। तभी केतुमाल विष्णोः पृथक् तस्य गणस्सप्तावधाऽप्ययम् ॥ में आधीरात होती है और कुरु में सर्यास्त होता स्तम्भस्यदर्पणस्येव योयमासन्नतां गतः। छायादर्शनसंयोगे स तं प्राप्नोत्यथात्मनः ।। सर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानमुपरि स्थितम् । विष्णुपुराण २।११।१५-१६ मन्यन्ते खे यतो गोलस्तस्य क्वोवं वाप्यधः ॥ ... इस विवरण से स्पष्ट है कि वास्तव में सूर्य अल्पकायतया लोकाः स्वस्थानात्सर्वतोमुखम् । स्थिर है, उसका न उदय होता है और न अस्त । पश्यन्ति वृत्तामप्येतां चक्राकारां वसुन्धराम् ।। वहां यह भी कहा गया है कि सूर्य से ज्योति प्राप्त । अन्येपि समसूत्रस्था मन्यन्तेऽधः परस्परम् । कर चन्द्रमा प्रकाशित होता है । भद्राश्वोपरिगः कुर्याद भारते तूदयं रविः ।। क्षीणं पोतं सुरैः सोममाप्यायति दीप्तिमान् । रात्र्यधं कुतुमाले तु कुरावस्तमयं तदा ॥ मैत्रेयककलं सन्तं रश्मिनकेन भास्करः ।। सूर्यसिद्धान्त, १२॥५३-५४,५२७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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