Book Title: Jambudwip Part 01
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 70
________________ आत्मान्वेषण की... उनकी दृष्टि से तो पृथ्वी, जल, तेज और वायु के प्रपर जीवन में प्राप्त होने वाले सुखों की कल्पना सम्मिश्रण से निर्मित देह में उत्पन्न हुआ चैतन्य व्यर्थ है, क्योंकि न तो अपर जीवन का अस्तित्व तभी तक रहता है, जब तक शरीर स्थित रहता है और न ही किसी ऐसे भोक्ता का अस्तित्व है है। शरीर के विनष्ट होते ही चैतन्य भी विनष्ट जो इस जीवन में किये गये कर्मों का भोग अपर हो जाता है। यही कारण है कि पुनर्जन्म की जीवन में करता हो। जीवन का उद्देश्य येन केन धारणा की पुष्टि में कोई समर्थ तर्क उपस्थित प्रकारेण सुख की कामना करना और उसके लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक देह से ऊपर सभी प्रकार के प्रयत्न होने चाहिए। इस देह के देह में चैतन्य के प्रतिसरण की कल्पना केवल नाश होने पर कुछ भी शेष नहीं रहता। बाद में कल्पना ही है। आत्मा की असत्ता में ज्ञान अथवा न कोई प्राता है और न कोई कहीं जाता है। देह चैतन्य का आधार देह ही हो सकती है। तब, देह नष्ट होते ही एक ही क्षण में सब कुछ नष्ट हो की निवृत्ति होना स्वाभाविक और तर्क सम्मत है। जाता है । देहत्याग के पश्चात् पुनर्जन्म तथा मुक्ति यदि ऐसा न माना जाएगा तो चैतन्य का देह के प्राप्ति की कल्पना केवल अयथार्थ धारणा ही हो अतिरिक्त अन्य आधार खोजना होगा, जबकि देह सकती है-'भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः' के अतिरिक्त चैतन्य का अन्य कोई आधार नहीं (सं०८०सं०, पृ० २४; सू० शी०, १११११।१२) । वैदिक और वेदोत्तरकालिक स्फुट विचारों का ज्ञानाधारात्मनोऽसत्वे बेह. एव तदाश्रयः । प्राधार पाकर विकसित यह दर्शनदृष्टि यद्यपि अन्ते देहनिवृत्तौ च ज्ञानवृत्तिकिमाश्रयः॥ भारतीय आदर्शों और कल्पना के अनुरूप नहीं (त० सं० २, पृ० ६३६ ) ठहरती, साथ ही इस दृष्टि की यथार्थता से सामाजिक मूल्यों की स्थापना में विसंगति की भी __अन्य सभी भारतीय दर्शन दृष्टियों से चार्वाक आशङ्का की जा सकती है, तथापि इन्हीं कारणों दृष्टि इस अर्थ में भी यथार्थ के धरातल पर खड़ी से इस दार्शनिक चिन्तन के महत्त्व को कम करके प्रतीत हो सकती है कि इस दृष्टि से लौकिक सुख नहीं प्राँका जा सकता। यहाँ जगत् व्यवहार एवं के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुषार्थं ही नहीं है। जागतिक पदार्थों की प्रत्यक्ष असतता का स्वरूप इन्द्रियजनित सुखों की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य ऐसा यथार्थ और निर्मम है कि मनुष्यमन जब-जब है और इसमें भी स्त्री-संसर्ग परमपुरुषार्थ तथा भी मात्ममोही भावनाओं से एक क्षण के लिए प्रानन्द है। यद्यपि इस संसार में ऐसा कोई सुख भी विलग होता है तब-तब उसे देहातिरिक्त नहीं है जो दुःख से सर्वथा भिन्न हो, किन्तु आत्मा के अस्तित्व के विश्वास में अविश्वास करने मनुष्य को अपनी प्रवृत्ति और इच्छा के अनुरूप का आधार मिल जाता है। संभवतः चार्वाकदृष्टि सुख की प्राप्ति की ही चेष्टा करनी चाहिए। से यही सामाजिकता और सन्दर्भयुक्तिका है कि अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः। न वह यथार्थ के भौतिक आधार पर खड़ा होकर च 'अस्य दुःखसम्भिन्नतया पुरुषार्थत्वमेव नास्ति' मनुष्य के अस्तित्व की व्याख्या में विश्वास करता इति मन्तव्यम् । प्रवर्जनीयता प्राप्तस्य दुःखस्य है, जहाँ देह की आत्मा, उसका सुख ही पुरुषार्थ परिहारेण सुखमात्रस्यैव भोक्तव्यात् ।' और उसी का कर्तृत्व भोक्तृत्व मनुष्य जीवन का ' (सं० स० पृ०५.) अथ और इति है। इस जीवन में प्राप्तव्य सूखों को त्यागकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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