Book Title: Jambudwip Part 01
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 68
________________ आत्मान्वेषण की चार्वाकीय दृष्टि 0 डॉ० गदाधर त्रिपाठी मउरानीपुर (झांसी) विश्व के विस्तार, अगम्यता और विनश्यता का विश्वास कुछ लोगों को था, वहीं कुछ विचाने सष्टि के प्रारम्भ से ही न केवल मनुष्य के मन रकों के मन में यह विश्वास भी था कि मृत्यु के में कौतूहल और जिज्ञासा उत्पन्न की है, अपितु पश्चात् प्राणी का अस्तित्व शेष नहीं रहताउसे यह भी सोचने पर विवश किया है कि इस 'येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति विशाल विश्व के बीच उसका अपना स्वरूप क्या चैके' (कठ०, १११०२०)। इतना ही नहीं, प्रजाहै, उसकी नियति क्या है, उसके अस्तित्व का पति ने विरोचन को मात्मा का उपदेश देते समय आधार क्या है ? और तब रहस्य-रोमाञ्च के कहा कि नेत्रों से दिखाई देने वाला प्रतिबिम्ब ही प्रारम्भिक विचार में उसे ऐसा लगा कि सूर्य इस आत्मा है- 'य एषोऽक्षिणी पुरुषो दृश्यत एष जगत् की मात्मा है, इन्द्र पृथ्वी को स्थिर रखता प्रात्मेति' (छान्दो०, ८1८।४) । याज्ञवल्य भी है, अग्नि इस सृष्टि का उपादान कारण है आत्मा के अन्वेषण में होता, प्राण, वाकु, घ्राणादि ( ऋ० २।१२।२)। पर बाद में उसे ऐसा अनुभव में प्रात्मा देखते हैं, और बाद में उसका निषेध होने लगा कि नहीं; इन्द्र का वैसा अस्तित्व नहीं करते हैं, और इस तरह मात्म-स्वीकार की शाश्वतहै (ऋ० ८।१००१३), प्रजापति प्रात्मा का प्रावि- वादी मान्यता के निषेध का एक प्राधार देते हैं। र्भावक है, पर वह कौन है, हम किसे हवि प्रदान बाद में ऐसे ही स्फुट विचारों का आधार लेकर करें (ऋ०, १०११२११२) ! किसी ने कहा, आप चार्वाक दर्शन भारतीय दर्शन-परम्परा में एक ऋषि हैं, कृपया यह बतावें कि सृष्टि के निर्माण महत्त्वपूर्ण दर्शन के रूप में विकसित हुआ । प्राज का प्राधार क्या है, मनुष्य का निर्माण कैसे हुमा यद्यपि अन्य दर्शन-साहित्यों की भांति इस दर्शन(ऋ०, १०८११४) । किसी ने पूछा कि पुरुष के दृष्टि का साहित्य उपलब्ध नहीं है, तथापि प्राचीन . हाथों का प्रण लियों का, पैरों का, जंघाओं का विचार-परम्परा में प्रास्तिक तथा नास्तिक दर्शन निर्माण किसने किया है और बाद में कहा-पुरुष के प्राचार्यों द्वारा स्थान-स्थान पर चार्वाकों के ब्रह्मरूप होकर यह सब करने का सामर्थ्य पा लेता सिद्धान्त के खण्डन का प्रयत्न ही यह सिद्ध करने है (अथर्व० १०॥२)। के लिये पर्याप्त है कि वैदिक तथा वेदोत्तर परम्परा . विचारों का यह क्रम उपनिषदों में अधिक के निषेधपरक दृष्टिकोण से प्रभावित चार्वाक स्पष्टता के साथ फलित हुमा, और प्रात्मा के नित्य दृष्टि नितान्त रूप से प्रभावी थी, जिसे देहातिरिक्त कूटस्थ और चैतन्य स्वरूप की अवधारणा का प्रात्मा के अन्य स्वरूप में विश्वास नहीं था। निश्चित प्राधार भी तैयार हुआ । परन्तु यह लोकायत, ऐहिकवादी और चार्वाक के नाम से धारणा भी निःशेष नहीं हुई कि मृत्यु के पश्चात् ज्ञेय इस दृष्टि के समर्थक विचारकों का यह पाभिप्राणी का कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता। जहाँ मत है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ही प्रत्यक्षतः मृत्यु के बाद प्रात्मा के अस्तित्व के शेष रह जाने ज्ञेय पदार्थ हैं । इन महाभूतों से निर्मित शरीर में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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