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द्वितीय अध्याय कवि और काव्य
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स्वभावोत्पन्न प्रतिमा, अत्यन्त निर्मल श्रुताध्ययन और उसकी बहु-योजना ही काव्य-सम्पदा है' अर्थात् दण्डो के अनुसार प्रतिभा और श्रं ताभ्यास ये दोनों ata मे होना अनिवार्य है । आचार्य मम्मट ने यद्यपि कवि के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं लिखा है तथापि काव्य-कारण के व्याज से उन्होंने कवि की योग्यता अवश्य कह दी है । तदनुसार हम कह सकते हैं कि स्वाभाविक प्रतिभा (शक्ति), लौकिकशास्त्र तथा काव्यशास्त्र के पर्यालोचन से उत्पन्न निर्गुणसा एवं काव्य-रचना को जानने वाले गुरू की देख-रेख में काव्य निर्माण का अभ्यास इन तीन गुणो से युक्त व्यक्ति कविता करने की योग्यता रखता है अर्थात् वह कवि कहलाने का अधिकारी है ।
इस प्रसग मे जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने यद्यपि कवि का स्वरूप स्पष्ट नहीं कहा है तथापि वे काव्य-कारण के व्याज से प्रतिभा को ही कवि की योग्यता मानते हैं ३ । इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने भी काव्य-कारण के व्याज से प्रतिभा को ही कवि की योग्यता स्वीकार किया है अर्थात् कवि वह है जो प्रतिभावान् हो । इसके समर्थन मे उन्होंने भट्टतोस के काव्यकौतुक से उद्धरण देते हुए लिखा है कि-- नवीन नवीन अर्थों के उन्मेषक प्रज्ञा विशेष का नाम प्रतिभा है तथा उससे अनुप्राणित वर्णन करने मे निपुण कवि कहलाता हैं । आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि ने भी काव्य-कारण के व्याज से कवि-स्वरूप का निरूपण करते हुए कवि में प्रतिभा का होना आवश्यक माना है। इसके समर्थन मे उन्होने भी भट्टतोत के काव्य कौतुक से उक्त उद्धरण प्रस्तुत किया है । विनयचन्द्रसूरि ने कवि की परिभाषा करते हुए लिखा है कि-शब्द और अर्थ को मानने वाला तस्बो का ज्ञाता, माधुर्य, भोज आदि गुणो का साधक, दक्ष,
१ काव्यादर्श, १1१०३ ।
२ शक्तिनिपुणतालोक -शास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् ।
काव्यश शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुदमने || वाग्भटालकार, १३ |
३
४ काव्यानुशासन, ११४ |
५ बही, ११३ | वृत्ति ।
६ अलकार - महोदधि, ११७ |
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प्रज्ञा नवनवोल्लेलशालिनी प्रतिभा मता । तदनुप्राणनाजीवदवर्णना निपुण कवि ॥
- काव्यप्रकाश, ११३ ।
वही, ११७ वृति ।