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जैनाचार्यों का बसंकारशास्त्र में योगदान
, इसका स्वामिभाव हास है। भरतमुनि ने इसकी उत्पत्ति विकृत वैष, अकारादि विभावों से मानी है।' उनके अनुसार हास्य छ' प्रकार का होता है-स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपदसत और अतिहसित । प्रथम दो प्रकार का हास्य उत्तम पुरुषो में, मध्यम दो प्रकार का हास्य मध्यम पुरुषों में तथा अन्तिम दो प्रकार का हास्य अधम पुरुषो में पाया जाता है। यह आत्मस्थ और परस्थ के भेद से भी दो प्रकार का होता है। जब किसी भी वस्तु के दर्शनादि से स्वय हंसता है, तब आरमस्थ कहलाता है और जब दूसरे को हंसाता है, तब वह परस्थ व हलाता है।
जैनाचार्य आयरक्षित के अनुसार रूप, वय (अवस्था), वेश और भाषा की विडम्बना से उत्पन्न रस हास्य है । मन के हर्षित होने से प्र, नेत्र आदि का विकसित होना इस रस के चिन्ह (अनुभाव) हैं। यथा-कज्जल की रेखा से युक्त सोये हुए देवर को जागा हुआ देखकर स्तन के भार से कम्पित और जिसकी कमर झुकी हुई है, ऐसी श्यामा खिलखिला कर हंस रही है। वाग्भटप्रथम ने वेश आदि की विकृति से हास्य की उत्पत्ति मानी है। उनके अनुसार यह उत्तम, मध्यम और अषम प्रकृति के भेद से तीन प्रकार का है। महापुरुषो के हास्य में केवल कपोलो और नेत्रों में हास्य रहता है तथा ओष्ठ बन्द रहते हैं। मध्यम पुरुषो के हास्य मे मुख खुल जाता है और अधमो का हाम्य शब्दपूवक होता है । हेमचन्द्र ने लिखा है कि स्मित, विहसित और अपहसित के भेद से आत्मस्थ हास्य तीन प्रकार का होता है, तथा क्रमश उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृ त में पाया जाता है। इसी प्रकार हसित, उपहसत, और अतिहसित के भेद से परस्थ भी तीन प्रकार का होता है, जो क्रमश उत्तमादि प्रकृतियो मे पाया जाता है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने टिकृत आचरण और आश्चयकारी चेष्टाओ से हास्य-रस की उत्पत्ति मानी है तथा उन्हें हास्य के भरत-सम्मत भेद ही मान्य हैं। नरेन्द्रप्रभसूरि ने आत्मस्य और परस्थ के
१ नाट्यशास्त्र, ६४८, पृ०७४। २ वही, ६१५२-५३।
वही, ६४, पृ०७४। ४ अनुयोगद्वार सूत्र (वित्तीय भाग), पृ०३ । ५. धाग्भटालकार, ५२२६-२४ । ५ काव्यानुशासन, रा१०-११। . हिन्दी नाट्यवर्षण, ३।१२-१३॥