Book Title: Jainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 54
________________ 奇 जैनाचायों का मस्त्रि हैं। इसके साथ ही उन्होंने व्यभिचारिभाव, रखें और स्वादको नाम ग्रहण करने को दोष मामने वाले मम्मटादि के मत की करते हुए यह व्यवस्था दी है कि विभावादि की पुष्टि होने पर व्यभिचारिभावादि को नात ग्रहण करने पर भी दोष नही होता है ।" यहाँ यह उल्लेखनीय है कि परिहरति रति मति लुमीते स्खलतितरां परिवर्तते च भूयः । इति वत विषमा दशास्य देह परिभवति प्रसभ किमत्र कुर्म ॥ इस पथ में बेचैनी आदि अनुभाव शृङ्गार की तरह करुणादि में भी सम्भव हैं, अत कामिनी रूप विभाव की प्रतीति यत्नपूर्वक होने से मम्मट ने विभाग की कष्टकल्पना रूप रसदोष माना है। किन्तु रामचन्द्र-गुणचन्द्र उक्त पद्म में वाक्य दोष मानते हैं। उनका कहना है कि दो रसों में समान रूप से होने are विभावादि arms पदों की किसी एक नियत रस में विभावादि की कष्ट रामचन्द्र - गुणचन्द्र का यह कथन ४ पूर्वक प्रतीति सदिग्धता रूप वाक्यदोष है । एक सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है । नरेन्द्रप्रभसूरि" और विजयवर्णी' ने मम्मट-सम्मत ही १० रसदोषी का उल्लेख किया है । यद्यपि अजितसेन ने रसदोषो का विशेष उल्लेख नही किया है तथापि उनकी ओर संकेत अवश्य किया है। उन्होंने रस और भाव का स्वशब्द से ग्रहण दोष माना है। इसी प्रकार अनुभाव की कष्टकल्पना अथवा प्रतिकूल अनुभाव आदि का ग्रहण करना भी दोष माना है।" पद्मसुन्दरमणि ने निम्न ५ ३ अङ्गीश्रावयश्च दोषा परमार्थतो अनौचित्यान्त पातिनीऽपि सहृदयानामनौचित्ययुत्पादनार्थमुदाहरणत्वेनोपाता । - हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ० ३२८ । २ केचित् व्यभिचारि-रस-स्थायिनां स्वशब्दवाच्यस्व रसदोषमाडु तदयुक्तम् । व्यभिचार्यादीनां स्ववाचकपदप्रयोगेऽपि विभावपुष्टी -- 'दूरादुत्सुकमागते " ।' इत्यादी रसोत्पतेरदीष एवायम् । -वही, पृ० ३२८-३२९ । ३ काव्यप्रकाश, पृ० ३६० । ४. उभयरससाधारण विभावपदानां कष्टेन नियतविभावाभिधायित्वविकोप eferrerit वाक्यदोष एव । - हिन्दी नाट्यदर्पण, पू० ३२९ ५ अलकारमहोदधि, ५११८-२० । ६ शृंगारार्णवचन्द्रिका, १०११७७-१८० १ ७ लङ्कारचिन्तामणि, ५२५७ । ८. वही, ५।२६०-२६१ /

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