Book Title: Jainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 43
________________ जैनाचायों का बलकारशास्त्र में मोमवान स्वल का सूक्म दृष्टि से अबलोकन किया जाब तो भास होता है कि इनके पूर्व बावकारिकों में प्रचलित जो रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और ध्वनिरूपाच सम्भवाय थे, उनका सम्यकरूपेण समावेश किया गया है। इतना सष्ट और विस्तृत काम्प-स्वरूप अन्यत्र देखने में नहीं पाया है, लेकिन इसका कलेवर इतवा बृहत् हो गया है कि सामान्य काव्य-रचना इसके अन्तर्गत मा सकेमी । वाग्मट-द्वितीय ने दोष-रहित, गुण-सहित तथा प्राय अलंकार जिसमें हों ऐसे शब्दार्थ-समूह को काव्य कहा है । यह मम्मट के काव्य-स्वरूप को पुनरावृत्ति मात्र है। इसी प्रकार भावदेवसूरि सहृदयों के लिए इष्ट, दोष-रहित सदगुणों और अलंकारो से युक्त शब्दार्थ-समूह को काव्य मानते है। इस स्वरूप लेखन के मूल में भी मम्मट के काव्य-स्वरूप की ही भावना प्रधान है। सिरिचन्द्रगणि ने मम्मट के काव्य-स्वरूप का खण्डन करके साहित्यदर्पणकार के 'वाक्य रसात्मक काव्यम्' इस स्वरूप का समर्थन किया है। मम्मट सम्मत काव्य-रूप के खण्डन में उन्होने साहित्य-दर्पणकार के तर्कों का ही सहारा लिया है, उसके सम्बन्ध में कोई नवीन बात नहीं कही है। उपयुक्त काव्य-स्वरूपो को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि मम्मट के समय तक काव्य के समस्त अगो पर समान रूप से विचार किया जाने लगा था। चूंकि वाग्भटादि जैनाचार्य उनके परवर्ती है, अत उन्होने भामहादि प्रारम्भिक आचायों की तरह मात्र काव्य के शरीर पर हा विचार न कर उसके सम्पूर्ण अगों पर विचार किया है और यही कारण है कि जैनाचार्यसम्मत काव्य-स्वरूपों पर प्राय मम्मट का प्रभाव दिखाई देता है। आचार्य वाग्भट-प्रथम ने मम्मट के काव्य-स्वरूप मे एक-दो नवीन तत्वो का समावेश किया है, जिसमे रीत प्रमुख है। किन्तु सामान्यतया विद्वान् रीति को काव्य मे आवश्यक नहीं मानते हैं। हेमचन्द्राचार्य पूर्णत मम्मट के अनुपायी है। नरेन्द्रप्रभसूरि ने मम्मट के काव्य-स्वरूप मे 'सव्यवनस्तपा' यह १ शब्दाची निर्दोषी सगुणी प्राय सालंकारी काव्यम् । -काव्यानुशासन-वाग्भट, पृ. १४ । २ शब्दायों भवेत्काव्यं तौ च निर्दोष सद्गुणौ । सालंकारी सतामिष्टावत एतम्निरूप्यते । काव्यालकारसारसंग्रह १५. ३. काव्यप्रकाश-सण्डन, पृ. ३ ।

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