Book Title: Jainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 37
________________ arrerator reaारशास्त्र में योगदान रेख जानने वाले गुरू की शिक्षा के अनुसार (काव्य-निर्माण बास ( freer समष्टि रूप से) उस ( काव्य ) के विकास (म) के हेतु है सम्म एकवचन का प्रयोग किया है." और अभ्यास ये तीनों मिल ने अपने इन काव्य-हेतुओं मे 'हेतु.' इस जिसका तात्पर्य यह है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति काव्य के उद्भव में हेतु हैं, पृथक पृथक नहीं U ' इति श्रय' समुदिताः, न तु व्यस्ता', तस्य काव्यस्योद्मवे निर्माण समुल्ला 'हेतुर्न तु हेत'" ।" जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार किया है तथा शेष व्युत्पत्ति और बन्यास को क्रमश विशेष शोभाजनक और शीघ्र काव्य निर्माण में सहायक कहा है । पुन तीनों का स्वरूप निरूपण करते हुए लिखा है कि-प्रसादादि गुणो वाले रमणीय पदों से नवीन अर्थ की उद्भावना करने मैं समर्थ कवि की सर्वतोमुखी बुद्धि का नाम प्रतिभा है । गुरु-परम्परा से प्राप्त व्याकरणादि शास्त्रों के असाधारण ज्ञान का नाम व्युत्पत्ति है तथा गुरु के समीप में बैठकर निरन्तर अबाध गति से काव्य-रचना करने का नाम अभ्यास है । इसमें अभ्यास के प्रकारो मे बतलाया गया है कि काव्य-रचना हेतु सर्व प्रथम रमणीय सन्दर्भ का निर्माण करते हुए अर्थशून्य पदावली के द्वारा समस्त छन्दो को वश मे कर लेना चाहिये ।" आचार्य हेमचन्द्र ने केवल प्रतिभा को हो काव्य १ शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् । का यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुभये ।। २ वही, ११३ । वृत्ति । ३ प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम् । शोत्पत्तिकृदम्यास sarsafaiser | ४ प्रसन्नपदन व्यार्थ युक्त्युद्बोष विधायिनी । स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धि प्रतिभा सर्वतोमुखी ॥ शब्द मर्च का मादिशास्त्रेष्वाम्नायपूर्विका । प्रतिपतिरसामान्या व्युत्पत्तिरभिधीयते ॥ अनारतं गुरुपान्ते य काव्ये रचनादर | वमभ्यास विदुस्तस्य क्रम कोऽप्युपदिश्यते ॥ ५. fereer anaeroत्व पदावल्यार्थ शून्यमा । कुर्वीत काव्याम बन्दांसि निखिलान्यपि ॥ # - काव्यप्रकाश, ११३ · -वाग्भटालंकार, १३ ११४-६ -वही, ११७ ॥

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