Book Title: Jain Tirth Parichayika Author(s): Shreechand Surana Publisher: Diwakar Prakashan View full book textPage 8
________________ तीर्थ परिचायिका का आवश्यक परिचय सन्त पुरुषों ने तीर्थ की एक सरल परिभाषा की है तारे सो तीर्थ-इस परिभाषा में जंगम-स्थावर दोनों प्रकार के तीर्थ आ जाते हैं। जंगम यानी चलते-फिरते जीवित तीर्थ। तीर्थंकर भगवान जंगम तीर्थ के संस्थापक होने से तीर्थ के कर्ता कहे जाते हैं। वे स्वयं भी सर्वोत्तम तीर्थ रूप हैं, तथा उनके पथ के अनुगामी सन्तजन, त्यागी साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका भी तीर्थ रूप हैं। इनके सत्संग से पवित्र वातावरण मिलता है। आत्मा में दिव्य प्रेरणाएँ जगती हैं, इसलिए वे सब तीर्थ रूप हैं। ___ स्थावर तीर्थ भी अनेक प्रकार के होते हैं, मुख्यतः इसके तीन भेद किये जा सकते हैं। सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र तथा प्रभावक क्षेत्र । जहाँ जिस स्थान पर त्यागी, तपस्वी, ऋषि, महर्षियों ने तपःसाधना, ध्यान साधना करके सिद्ध गति-मोक्ष प्राप्त किया है वह सिद्ध क्षेत्र या सिद्ध शिला कहलाता है। शत्रुजय, गिरनार, अष्टापद, शिखर जी, पावापुरी आदि ऐसे ही सिद्ध क्षेत्र हैं। ___जहाँ तीर्थंकर भगवान के जन्म से निर्वाण तक पंच कल्याणक होते हैं या उनके चरण-स्पर्श से जो भूमि विशेष पवित्र हुई है वह अतिशय क्षेत्र कहा जाता है। जैसे अयोध्या, हस्तिनापुर, चम्पा, कौशाम्बी, कुण्डलपुर आदि। इसके अलावा जिन स्थानों का अपना विशेष प्रभाव होता है, तथा पूजा, प्रतिष्ठा, तप, जप आदि के कारण जहाँ का वातावरण विशेष प्रभावक होता है वे सभी तीर्थ क्षेत्र प्रभावक तीर्थ की परिभाषा में आते हैं। ___ तीर्थ भूमि का आकर्षण, उसके प्रति श्रद्धा और वहाँ की धरती पर जाकर आराध्य पुरुषों की वन्दना, पूजा आदि करके जीवन को कृतार्थ करने की भावना प्रत्येक आस्तिक और श्रद्धालु मानस में स्वाभाविक रूप में होती है। इसी श्रद्धा से प्रेरित होकर प्रति वर्ष हजारों, लाखों व्यक्ति अनेक प्रकार के कष्ट सहकर भी स्वयं तीर्थयात्रा करते हैं और बड़े-बड़े यात्रा संघ निकालकर अपने जीव को धन्य मानते हैं। भारत भूमि एक प्रकार से देव भूमि है। पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैले हजारों प्राचीन, नवीन तीर्थ इस धरती को स्वर्गादपि गरीयसी बताते हैं। प्रत्येक श्रद्धालु व्यक्ति चाहता है, जीवन में एक बार तो तीर्थयात्रा करें, सब तीर्थों की यात्रा वन्दना नहीं, तो कम से कम जितने सम्भव हो उतने ही सही। और नहीं तो शत्रुजय और शिखर जी जैसे शास्वत तीर्थों की यात्रा तो जीवन में एक बार अवश्य करें। प्राचीन समय में तीर्थयात्रा करना बड़ा कठिन और अत्यन्त कष्ट साध्य व अर्थ साध्य काम था। किन्तु धीरे-धीरे यात्रा के मार्ग सुगम होने से, यातायात साधनों का विकास और दूर संचार सुविधाओं का विस्तार तथा तीर्थ क्षेत्रों में आवास आदि की सुविधाएँ बढ़ने से तीर्थयात्रा इतनी कठिन नहीं रही है। फिर भी आज भी तीर्थयात्रियों के लिए तीर्थयात्रा एक कठिन तपस्या से कम नहीं है। लगभग २५ वर्ष पूर्व मद्रास से 'जैन तीर्थ दर्शन' नामक पुस्तक का दो भागों में सचित्र प्रकाशन हुआ था। इसके पूर्ववर्ती प्रकाशनों से यह एक श्रेष्ठ प्रकाशन कहा जा सकता है। भावनाशील और अनुभवी सम्पादकों ने अपने ही संसाधनों से तीर्थ क्षेत्रों की यात्राएँ की, वहाँ के पवित्र मन्दिरों की फोटोग्राफी की और अनेक प्रकार की जानकारियाँ जुटाकर तीर्थ यात्रियों के लिए एक बहुत ही उपयोगी मार्ग दर्शक पुस्तक प्रकाशित की। ऐसी पुस्तक लोकप्रिय होने के बाद उसके दो-तीन संस्करण प्रकाशित हुए। उसके बाद भी तीर्थों की जानकारी देने वाली अनेक छोटी-बड़ी मार्ग दर्शक पुस्तकें, तथा तीर्थों की कला और संस्कृति का परिचय देने वाली अनेक पुस्तकों का भी प्रकाशन हुआ। - iv Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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