Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 198
________________ (१६२) उभय बंध है [ अर्थात् जीव और कर्म पुद्गल एक दूसरे के परिणाम में निमित्त मात्र होवें. ऐमा जो (विशिष्ट प्रकार का-खास प्रकार का) उनका एक क्षेत्रावगाह सम्बाँध है सो वह पुद्गल जीवात्मक बंध है ] प्रश्न (७५)-जब एक परमाणु का दूसरे परमाणु से निश्चय बाँध नहीं है तब जीव के साथ पुद्गल का सबन्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर- कभी नहीं हो सकता है क्योंकि पुद्गल एक जाति के होते हुए उनमे निश्चय बध नही है । तो फिर जीव का पुद्गलो के साथ बधा कैसे हो सकता है ? कभी भी नहीं हो सकता है। प्रश्न (३७६)-जीव और पुद्गल के बंधा के विषय में क्या याद रखना चाहिए? उत्तर (१) जीव और पुद्गल के बंध को व्यवहारबंध कहा है वह दोनों स्वतत्र रुप से अपने अपने उपादान से हैं एक दूसरे के कारण नहीं है । (२) आत्मा और कर्म के साथ बंध होता है यह ज्ञान कराने के लिए सच्ची बात है (३) आत्मा कर्म से बंधता है है यह श्रद्धा छोड़नी है, (४) मेरे में जो रागद्वेष होता है यह निश्चय बंध है। जब तक जीव अपने प्रबंधस्वभावी भगवान प्रात्मा का और रागद्वेष मेरे में मेरी मूर्खता से एक समय का है ऐसा नहीं जानेगा तब तक दूसरे के दोष निकालता रहेगा और ससार परिभ्रमण मिटेगा नहीं। प्रश्न (३७७)-क्या करना? उत्तर-मैं अनादिअनन्त चैतन्य स्वभावी भगवान हूँ मेरी एक समय की पर्याय में मूर्खता मेरे अपराध से है ऐसा जान

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