Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 204
________________ (१९८) प्रश्न (३६६)-स्व-पर प्रत्यय से क्या तात्पर्य है ? उत्तर-जहां पर दो कारण बताने में आवे तब स्व-पर प्रत्यय कहा जाता है। जैसे जीव पुद्गल चले. तो धर्म-द्रव्य को निमित्त कहा जाता है। तो जीव पुद्गल में क्रियावती शक्ति का गमन रुप परिणमन स्व और धर्म द्रव्य के गतिहेतुत्व का परिणमन पर, इस प्रकार स्व-पर प्रत्यय कहे जाते है। प्रश्न (४००)-स्व-पर प्रत्यय के लिए कोई शास्त्राधार दीजिए? उत्तर-श्री प्रवचनसार जय सेनाचार्य की गा० ६ की टोका में लिखा है कि "जैसे स्फ टेक मणि विशेष निर्मल ह परन्तु जपा पुष्पादि लाल काले श्वेत उपाधिवश से लाल श्वेत वर्ण रुप होता है।" इसमें बताया है स्फटिक निर्मल होने पर भी लाल काला स्वतंत्र परिणमन से हुआ है पर से नहीं। लेकिन पर निमित्त होता है; उसी प्रकार प्रात्मा स्वभाव से शुद्ध होने पर भी उसकी पर्याय मे विकार है कर्म निमित्त है परन्तु विकार कर्म के कारण नहीं है। इसके लिए विशेष तौर से प्रवचनसार गा० १२६ की टीका सहित देखो। प्रश्न (४०१)-व्यवहार में पर की बात क्यों कहने में पाई ? उत्तर-पर का आश्रय कहने में आता है यह व्यवहार कथन है। पर कराता है, ऐसी अनादि की खोटी मान्यता छोड़कर अपना आश्रय लेकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से निर्वाण होना, यहजानने का लाभ है। प्रश्न (४०२)-श्री पंचास्तिकाय गा० ६२ में क्या बताया है ? उत्तर- "सर्व द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में छह कारक एक साथ वर्तते हैं, इसलिए प्रात्मा और पुद्गल शुद्ध दशा म या

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