Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 209
________________ (२०३) होती है। और 'जैसी गति, वैसी मति' होती है। प्रश्न (४१७)-'जैसीमति, वैसीगति' से क्या तात्पर्य है ? उत्तर- जीव जिस समय जैसा भाव करता है वह उस समय वह ही है, यह तात्पर्य है । जैसे-मनुष्य भव होने पर घर पर ज्यादा प्रादमी हैं वहां अांख लाल पीली नाकरें और जरा फूफाँ नाकरें तो लोग बिगड़ जाबे, ऐसा जान कर जो जीव फूफाँ करता है वह उस समय साँप ही हैं। प्रश्न (४१८)-'जैसी गति, वेसी मति' से क्या तात्पर्य है ? उत्तर- जैसे-कोई जीव सांप बन गया तो वहां वह एक एक समय करके फूफां ही करता रहेगा अर्थात् वैसा का वैसा करता रहने की अपेक्षा 'जैसी गति, वैसी मति' कहा जाता है। परन्तु सब जगह पर्याय एक ही समय की होती है ऐसा जानना। प्रश्न (४१६)-शब्द तो स्कंधों की पर्याय है, उसमें एक समय की बात किस प्रकार है ? उत्तर- जब तक परमाणु रहता है तब तक उसका शब्द रुप परिणमन नहीं हैं। स्कंध रुप पर्याय में अपनी योग्यता से शब्द रूप पर्याय है। शब्दरुप स्कंध में एक एक परमाणु अलग अलग रुप से स्वतन्त्र परिणमन कर रहा है। स्कंध संयोग रुप होकर विभाव रुप परिणमन होता है उसमें एक एक परमाणु पृथक पृथक हैं, वह अपनी अपनी एक एक समय की पर्याय सहित वर्त रहा है।। प्रश्न (४२०)-जीव के विकारी भावों के विषय में और द्रव्य कर्म के उदय प्रादि के विषय में क्या जानना चाहिए? उत्तर-जीव में एक एक समय में जो विकारी भाव होता है, वैसा वैसा अपनी योग्यता से पुद्गलों में भी समय समय परिणमन होता है। जैसे-जीब में क्षयोपशम भाव हुमा तो द्रष्य कर्म में

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