Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 200
________________ ( १९४) सामग्री को ढूँडने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल-तरलअस्थिर वर्तता हुना, अनन्त शक्ति से च्युत होने से अत्यन्त विकल्व वर्तता हुआ ( घबराया हुआ ) महा मोहमल्ल के जीवित होने से, पर परिणति का (परको परिणमित करने का ) अभिप्राय करने पर भी पद-पद पर ( पर्याय, पर्याय में ) ठगाता हुआ, परमार्थतः अज्ञान में गिने जाने योग्य है; इसलिए वह हेय है । प्रश्न ( ३८३ ) - जिससे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम से मोक्ष हो, ऐसे आठ बोलों में से चौथा बोल क्या है ? उत्तर-विकारी और अविकारी पर्यायों की स्वतंत्रता का ज्ञान' यह चौथा बोल है । प्रश्न ( ३८४ ) - विकारी, अविकारी पर्यायों की स्वतंत्रता के ज्ञान से क्या तात्पर्य है ? उत्तर - विकारी पर्याय और अविकारी पर्याय, चाहे जीव की हो या प्रजीव की हो, वह ग्रपने में स्वतंत्र रूप से होती है उनका कर्ता द्रव्य स्वयं ही है दूसरा कोई अन्य करता नही है । प्रश्न ( ३८५ ) - क्या विकारी पर्याय जीव, पुद्गल की स्वतंत्र है ? उत्तर - हाँ, दोनों की स्वतंत्र है । यदि जीव यह जाने कि विकार मेरी गल्ती से ही है, तो गल्तीरहित स्वभाव का आश्रय लेकर गल्ती का अभाव कर सकता है और यह जाने गल्ती पर ने कराई है तो कभी भी दूर नहीं कर सकता है इसलिए जीव विकार करने में भी स्वतंत्र है और मिटाने में भी स्वतंत्र है । प्रश्न (३८६ ) - विकारी, अविकारी पर्याय स्वतंत्र हैं ऐसा समयसार में कही आया है ?

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