Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 199
________________ ( १९३) कर अपनी ज्ञान की पर्याय को अपनी मोर सन्मुख करे, तो मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यक्त्वादि की प्राप्ति होकर क्रम से मोक्ष का पथिक बने । यह दूसरे बोल का सार है। प्रश्न (३७८)-जिससे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम से मोक्ष हो, ऐसे पाठ बोलो में से-तीसरा बोल क्या है ? उत्तर- 'इन्द्रिय ज्ञान की मर्यादा क्या है' यह नाम है। प्रश्न (३७६)-क्या इन्द्रियों से ज्ञान नहीं होता है ? उत्तर-कभी भी नही होता है, क्योंकि ज्ञान तो ज्ञान गुण में से प्राता है, इन्द्रियो से नहीं। प्रश्न (३८०)-क्या इन्द्रिय ज्ञान से तात्त्विक निर्णय नहीं होता है ? उत्तर-कभी नहीं होता है, इसलिए इन्द्रिय सुख की तरह इन्द्रिय ज्ञान भी तुच्छ है । प्रतिन्द्रिय सुख और प्रतिन्द्रिय ज्ञान ही उपादेय है । अत: प्रतिन्द्रिय ज्ञान से ही तात्त्विक निर्णय होता है। प्रश्न (३८१)-तात्त्विक निर्णय में इन्द्रियां निमित्त नही है, तो कौन निमित्त है ? उत्तर-प्रागम निमित्त है, अत. अपने प्रात्मा का आश्रय लेकर • अपना निर्णय करे तो उपचार से प्रागम को निमित्त कहा जाता है इन्द्रियो को नही। प्रश्न (३८२)-इन्द्रिय ज्ञान दुःखरुप और हेय है ऐसा कहां लिखा है ? उत्तर--प्रवचनसार गा० ५५ टीका में लिखा है कि "प्रात्मा पदार्थ को, स्वयं जानने के लिए असमर्थ होने से उपात्त (इन्द्रिय मन इत्यादि उपात्त पर पदार्थ हैं) और अनुपात (प्रकाश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ है) पर पदार्थ रुप

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