Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 201
________________ (१६५) उत्तर-श्री समयसार जयसेनाचार्य कृत सूरत से प्रकाशित गा. १०२, पृष्ट ६८ में लिखा है कि : ...."जो शुभ और अशुभभाव करता है उस भाव का स्वतंत्र रुप से स्पष्टपने कर्ता होता है। और उस मात्मा का वह शुभ व अशुभ परिणाम भावकर्म होता है क्योंकि वह भाव प्रात्मा द्वारा किया गया है।" प्रश्न (३८७)-विकारी, अविकारी पर्याय स्वतंत्र है ऐसा कहीं श्री प्रवचनसार में भी लिखा है या नहीं? उत्तर --- श्री प्रवचनसार ज्ञेय अधिकार जयसेनाचार्यकृत गा० १२२ मे लिखा है कि "जो क्रिया जीव ने स्वाधीनता से शुद्ध या अशुद्ध उपादान कारण रुप से प्राप्त की है वह क्रिया जीव का कर्म है यह सम्मत है। यहां कर्म शब्द से जीव से अभिन्न चैतन्य कर्म को लेना चाहिए। इसी को भावकर्म या निश्चयकर्म भी कहते हैं ... " इसी प्रकार पुद्गल भी जीव के समान निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है।', प्रश्न (३८८)-कैसी श्रद्धा करनी चाहिए ? उत्तर-प्रत्येक जीव और पुद्गल की पर्याय विकारी हो या भविकारी हो वह स्वतन्त्र रुप से होती है ऐसी श्रद्धा करनी चाहिए। प्रश्न (३८६)-कैसी श्रद्धा छोड़नी चाहिए? उत्तर-जीव और पुद्गल की पर्याय एक दूसरे स होती है ऐसी खोटी श्रद्धा छोड़नी चाहिए। प्रश्न (३६.)-जीव में विकारी पर्याय स्वतन्त्र होती है इसको जानने से क्या लाभ है ? उत्तर-(१) विकारी पर्याय प्रशुद्ध निश्चयनय का विषय है, तो

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