Book Title: Jain Shwetambar Prachin Tirth Gangani
Author(s): Vyavasthapak Committee
Publisher: Vyavasthapak Committee

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Page 14
________________ [ ] श्री पद्मप्रभ पूजियाँ, पातिक दूर पलाय । नयणे मृति निरखता, समकित निर्मल थाय ॥२॥ आर्य सुहम्ती सूरीश्वरों, आगम श्रुत व्यवहार । संयम रांकवणी दियो, भोजन विविध प्रकार ॥ ३ ॥ उज्जैनी नगरी धणी, ते थयो सम्प्रति राय । जाति स्मरण जाणियों, ये ऋद्धि गुरु पसाय ॥ ४ ॥ वली तिण गुरु प्रति बोधियो, थयो श्रावक सुविचार । मुनिवर रूप बराबिया, अनार्य देश विहार ॥५॥ १-सम्राट संप्रति का होना और प्रतिष्ठा का समय बतलाते हुए कविवर ने कहा है कि प्राचाय सुहस्ती सूर ने दुष्काल में एक भिक्षुक को दीक्षा देके इच्छित आहार करवाया था, समयान्तर में वह काल कर कुणांस की राणो कांचनमावा की कुक्षि से सम्राट सम्प्रति हुश्रा और जब वह उज्जन में राज करता था तब रथयात्रा की सवारी के साथ पाचार्य सुहस्ती उनकी नजर में पाए । विचार करते ही राजा को जाति स्मरण शान हो पाया और सब राज ऋद्धि गुरु कृपा से मिली जान गुरु महाराज के चरणों में आकर राज ले लेने की अर्ज की पर निराही गुरु राज को लेकर क्या करते उन्होंने यथोचित धर्म वृद्धि ब उपदेश दे उसको जैन एवं श्रावक बनाया । उसने सज्जैन में जैनों की एक विराट् सभा की, प्राचार्य सुइस्ती बादि बहुत से जैन श्रमण यहां एकत्र हुए। अभ्याऽन्य कार्यों के साथ यह भी निश्चय किया कि भारत के अतिरिक अन्य देशों में भी मैन धर्म प्रचारपाना पादिए । राजा संपति ने इस बात बीड़ा उठाया और अपने सुभटों नेपीन, जापान, भरविस्वान तुर्किस्वान, मिडिया रिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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