Book Title: Jain Shwetambar Prachin Tirth Gangani
Author(s): Vyavasthapak Committee
Publisher: Vyavasthapak Committee

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ [ ११ ] अरजन पास जुहारिये, अरजुन पुरी शृगारो जी। तीर्थकर नेवेस मो, मुक्ति तणो दातारोजी ॥२॥ चंद्रगुप्त राजा हुओ, चाणक्य दिरायो राजो जी । तिण यह बिंब भरावियो, सारया आत्म काजो जी ॥३॥ १-दूसरे मूल नायक श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा सफेद सुवर्ण मय देख कविवर बड़ा भारी आश्चर्य प्रगट करते हैं। शायद रत्न हीरा, स्फटिक, माणिक्य नीलम, पन्ना आदि की मूर्तियाँ तो आपके समय में विद्यमान थी परन्तु सफेद सोना की मूर्ति गांगांणी में ही देख कर 'आपने आश्चर्य माना हो । सम्राट चन्द्रगुप्त ने इस प्रतिमा को बनवा कर वास्तव में मूर्ति के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा और भक्ति का परिचय दिया है। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में एक उल्लेख मिलता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने शासन में एक यह भी नियम बनाया था कि "अक्रोशाव चैत्याना मुत्तमं दंड मर्हति" अर्थात जो काई यदि चैत्य एवं देवस्थान के विषय में यद्वा-तद्वा अपशब्द कहंगा अथवा इनकी आशातना करेगा वह महान् दंड का भागी समझा जायगा, एसा जिन शासन का सच्चा भक्त यदि सफेद माने की मूर्ति बनावे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? सम्राट् चन्द्रगुप्त ने उस मूर्ति की प्रतिष्ठा चौदह पूर्वधर श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहु से करवाई थी, उनका समय कवीश्वर ने वीर निर्माण के पश्चात् १७० वर्ष का बतलाया है और उस समय यह दोनों महा पुरुष विद्यमान भो थे । इतना ही क्यों पर इनके पूर्व भी जैनों में मूर्तियों के अस्तित्व का पता मिल सकता है जैसे कि:Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24