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ला-
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॥ श्री धर्मनाथाय नमः ।।
श्री जैन गोष्टी, नवम्बर १९५६ दिल्ली में, भारतवर्ष के जैन तीर्थों में अद्वितीय स्थान प्राप्त करने वाला २२०० वर्ष प्राचीन
श्री जैन श्वेताम्बर तीर्थ
- श्री गांगांणी
संक्षिप्त-इतिहास
-प्रकाशक:
व्यवस्थापक कमेटी
जोधपुर ( राजस्थान)
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॥ वन्दे वीरम् ॥
॥ श्री जैन श्वेताम्बर प्राचीन तीर्थ
श्री गांगांणी (राजस्थान)
प्रकाश
व्यवस्थापक कमेटी
जोधपुर
विक्रम सम्वत
२०१४
वीर सम्वत्
२४८३
-:आदि से अन्त तक शांति पूर्वक पढ़िये । और इस तीर्थ की यात्रा कर लाभ उठाइये ॥
ES544545454545454545454545454545454545454545
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प्राचीन जैन श्वेताम्बर तीर्थ श्री गांगांणी (राजस्थान) की प्राचीन मूर्तियों (पर) के शिला लेख:
श्री आदीश्वर भगवान के सर्वधातु की प्रतिमा पर का लेख : ॐ नवसु शतेष्वब्दानां सप्ततृ ( त्रिं) शधि केवती तेषु । श्री वच्छलांगली भ्यां । ज्येष्टायभ्यिां । परम भक्त्या ॥ नाभेय जिन स्यैषा । प्रतिमाऽषाढ़ार्द्ध मास निष्पन्ना श्री म— तोरण कलिता । मोक्षार्थ कारिता ताभ्यां ॥ ज्येष्ठार्य पद प्रोप्ता द्वावपि -
जिन धर्म वच्छलौ ख्यातौ । उद्योतन सूरे स्तौ ॥ शिष्य श्री वच्छपलदेवो ॥ *
* सं० ६३७ आषाढार्द्ध
अनुवाद:
वीर संवत् ६३७ में ज्येष्ठार्य पदवी वाले श्री वच्छ और लांगली ने परम भक्ति से आधे श्राषाढ़ मास में मोक्ष के लिये तोरण में यह मूर्ति बनाई, उद्योतन सूरि के शिष्य ज्येष्ठार्य पदवी बाले श्री बच्छ और पल देव जिन धर्म में बत्सल प्रसिद्ध हैं || सं० ६३७ श्राधा अषाढ़ ||
श्री धर्मनाथ प्रभु के पाषाण की प्रतिमा पर का लेख
सं० १६६४ वर्ष फाल्गुन मासे कृष्णा पक्षे ५ पंचमी तिथी गुरुवासरे वती वास्तव्य, धर्म्मनाथ बिंब कारितं प्रतष्टीतं च श्री विजयदानसूरि उपाध्याया जैसागर गणी, बीजीपण पास मूर्ति सं० १६५८ वर्षे महा सुद ५ दीने उजीनी वास्तव्यः प्रागबाट न्यातीय पारसनाथ बिंब ||
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राजस्थान में जोधपुर से २० मील की दूरी पर जैन श्वेताम्बर प्राचीन तीर्थ श्री गांगांरी
अति शोभायमान, गगनचुम्बी, विशाल एवम् भीमकाय, परम दर्शनीय, सम्राट सम्प्रति द्वारा बनाया हुआ लगभग २२०० वर्ष पुराना भूमि से ७२ फीट ऊँचा मन्दिर भारत की प्राचीन शिल्प कला का आदर्श नमूना है।
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प्राचीन जैन श्वेताम्बर तीर्थ श्री गांगांणी (राजस्थान)
प्राचीन मूर्तियों (पर) के शिला लेखःश्री आदीश्वर भगवान के सर्वधातु की प्रतिमा पर का लेखः
ओं नवसु शतेष्वन्दानां सप्तत (त्रि) शदधि केष्वती तेषु । श्री वच्छलांगली भ्यां। ज्येष्टायभ्यिां । परम भक्त्या ॥ नगभेय जिन स्यैषा । प्रतिमाऽषाढ़ार्द्ध मास निष्पन्ना श्रीमत्तोरण कलिता । मोक्षार्थ कारिता ताभ्यां । ज्येष्ठार्य पदं प्रोप्ता द्वावपिजिन धर्म वच्छलो ख्यातौ । उद्योतन सरे स्तो। शिष्यो श्री बछरलदेवो ॥ *
मं०६३७ आषाहार्द्ध *
__ अनुवादःवीर संवन् ६३७ में ज्यनाय पदवी वाले श्री बच्छ और लांगली ने परम भक्ति में आधे भाषाढ़ मास में मोक्ष के लिये तारण में यह मूर्ति बनाई, उद्योतन सूरि के शिष्य व्याय पदवी वाले श्री बद और पल देव जिन धर्म में वत्सल प्रसिद्ध है। मं० ६३७ प्राधाकर
श्री धर्मनाथ प्रभु के पाषाण की प्रनिमा पर का लेख सं० १६६४ वर्ष फाल्गुन मासे कृष्णा पक्ष ५ पंचमी तिथी गुरूवासरे अवती वास्तव्य, धर्मनाथ बिंब कारितं प्रतष्टीतं च श्री विजयदानसूरि उपाध्याया जैसागर गणी, वीजीपण पास मूर्ति सं० १६५८ वर्षे महा सुद ५ दीने उजीनी वास्तव्यः प्रागबाट न्यातीय पारसनाथ विव॥
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राजस्थान में जोधपुर से २० मील की दूरी पर जैन श्वेताम्बर प्राचीन तीर्थ
श्री गांगांरणी
अति शोभायमान, गगनचुम्बी, विशाल एवम् भीमकाय, परम दर्शनीय, समाट सम्प्रति द्वारा बनाया हुअा लगभग २२०० वर्ष पुराना भूमि से ७२ फीट ऊँचा मन्दिर भारत की प्राचीन शिल्प-कला का आदर्श नमूना है।
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॥ श्री धर्मनाथाय नमः ||
प्राचीन जैन श्वेताम्बर तीर्थ श्री गांगांणी का
-: संक्षिप्त परिचय :
यह निर्विवाद सिद्ध है कि प्रत्येक जैन मन्दिर प्राचीन जैन संस्कृति, • प्रत्युत्कृष्ट शिल्पकता व जैन समाज की प्रशंसनीय समृद्धि का द्योतक होता है।
यह सर्वविदित है कि राजस्थान में जोधपुर से दक्षिण दिशा में करीब २० मील की दूरी पर गांगांणी नामक स्थान है। इतिहास के अनुसन्धान से पाया जाता है कि इस नगरी का प्राचीन नाम अर्जुनपुरी था जिसे धर्मपुत्र अर्जुन ने बसाई थी । उपकेशगच्छ चारित्र नामक संस्कृत साहित्य में जो काव्य ग्रन्थ विक्रम की १४ वीं शताब्दि के लेख में लिखा हुआ है उसके अन्त में गांगांणी के आदर्श मन्दिर का भी उल्लेख है ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि एक समय वह था जब इस बगही में हजारों जैनी निवास करते थे और बिन शासन की शोभा
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[ ४ बढाते थे । काल चक्र के कुप्रभाव से आज वहां एक भी जैनी निवास नहीं करता है । यह असत्य नहीं है कि प्राणियों के श्रात्म कल्याण के साधन दो हैं-जैनागम व जैन मन्दिर । अतः इस नगरी में जैनिगे की अधिक आबादी होने की दशा में एक भीमकाय, भारत की प्राचीन शिल्पकला का द्योतक, जमीन से ७२ फोट चा दुमंजिला मन्दिर हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
यह मन्दिर विक्रम से पूर्व २ शताब्दि में सम्राट सम्पति ने बनवाया था और इसकी प्रतिष्ठा सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री सुहुस्ति सूरिजी के कर कमलों से कराई गई थी। मन्दिरजी के प्राचीनता के लिये निम्न प्रमाण हैं:
(१) सम्वत् १६६२ में प्रकाण्ड विद्वान् एवम् प्रसिद्ध कविवर गणी श्री समय सुन्दर जी ने इस प्राचीन तीर्थ की यात्रा की थी और एक स्तवन रचा था जिसमें उन्होंने इस तीर्थ की प्राचीनता का उल्लेख किया था । पाठकों के अवलोकनार्थ यह स्तवन आगे मुद्रित किया जाता है।
(२) तपागच्छ को प्राचीन पट्टावली जो जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स हेरल्ड पत्र के पृष्ट ३३५ में मुद्रित हो चुकी है, उसमें लिखा है :
" सम्प्रति उत्तर दिशामां मरूधरमां गांगांणी नगरें श्री पद्म प्रभू स्वामिनो प्रासाद बिम्ब निपजाव्यो"
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* श्री गांगांणीमंडन *
पद्मप्रभ एवं पार्श्वनाथ स्तवन ( रचियता विवर समय सुन्दर गणि वि० सं० १६६२)
॥ ढाल पहिली ॥ पाय प्रणमु रे श्री पद्मप्रभ पासना ।
गुण गांऊ रे आणि मन शुद्ध भावना । गाँगांणी रे प्रतिमा प्रगट थई घणी।
__ तस उत्पत्ति रे मुणतो भषिक सुहामणी ।
'मुहामणि ये बात सुणतो कुमति शंका भाज से। निर्मलो धाशे शुद्ध समकित, श्री जिन शासन गाज मे ॥१॥ ध्रुब देश मंडावर महाबल बलि शूर राजा मोहए। तिहां गांव एक अनेक पाणिका, गाँगाणी मन मोहए ॥२॥
-यह वही गांगांणी है जिसके विषय में हम यह हिस्ट्री लिख रहे हैं। २ -कविवर के समय कुमति लोग कहा करते थे कि मन्दिर मूर्तियां बारह
वर्षीय दुष्काल में बनी है उन मोगों की शंका इन प्राचीन मूर्तियों से दूर हो सकती है । क्योकि ये मूर्तियाँ बारह वर्षीय दुष्काल के ४०० वर्ष पूर्व बनी है।
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[६]
॥ ढाल ॥ दुधेला रे नाम तलाब छे जेहनो।
तस्स पासेरे खोखर नाम के देहरा। तिण पुठेरे खणतां प्रकट यो भूहरो। परियागत रे जाणि निधान लाधो खरो ॥ ३ ॥
॥ त्रुटक ॥ लाधो स्वरो वलि मँहरो एक मांहे प्रतिमा अतिवली ।। ज्येष्ठ शुद्ध इग्यारस, सोलह बासटी, बिंब प्रगट या मनरली ॥ ४ ॥ : केटली प्रतिमा ? केनी वली ?, कौण भरावी भाव सू। ९ कोण नयरी कोण प्रतिष्टि ?, ते कहुं प्रस्ताव सं ॥५॥ .
३-महाराजा शूरसिंह के राजत्व वाल का समय वि० सं० १६५२ से
१६७६ तक का है। ४-धाणिका-इस शब्द से पाया जाता है कि अर्जुनपुरी में किसी जमामा
में घोणियां अधिक चलती हों और लोग उस नगरी को गांगांणी
के नाम से कहने लगे हों तो यह युक्ति युक्त भी हैं। १-दूघेला तालाब और खोखर नामक का मंदिर आज भी गांगांणी में विद्यमान है।
२-भू हारा-तलघर-मुसलम नों के अत्याचार के समय मूत्तियों का रक्षण इसी प्रकार किया जाता था कि उनको तलघर-भूहारों में रख दिया करते थे।
३-वि० सं० १६६२ ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी के दिन मुंहारा में मूत्तिये मिली थीं और उनकी जांच करके ही कविवर ने सब हाले लिखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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॥ ढाल ॥
से सगली रे पैसट प्रतिमा जाणिये ।
तिण सहुनी रे सगली विगत बखांणिये ॥ मूल नायक रे पन प्रभु ने पास जी ।
एक चौमुख रे चौबीसी सुविलास जी ॥ ६ ॥
॥७ टक ॥ सुविलास प्रतिमा पास केरी, बीजी पण तेवीसए । ते माही काउस्सगिया बिहु दिसी बहु सुन्दर दीसए ॥ ७ ॥ वीतरागनी उगणीस प्रतिमा बली ऐ बीजी सुन्दरू। सकल मिली ने जिन प्रतिमा, छियालीस मनोहरू ॥ ८ ॥
४-कविवरजी ने स्तवन में सब ६५ प्रतिमाएं कही है जैसे कि :
२-मूलनायक श्रीपयप्रभ और पाश्वनाथ भगवान की। १-चौमुखजी - समवसरणस्थित चार मुंह वाले । १-चौबीसी - एक ही परकर में २४ तीर्थहरों की मूत्तिएँ । २३-अन्याम्य तीर्थरों की प्रतिमा जिनमें दो काउस्सगिया भी है। १६ --और भी तीर्थकरों की मूत्तिएं सब मिला कर ४६ मूत्तिएँ हुई । १९-तीथंकरों के अलावा अन्य देवी देवता एवं शासन देवताबों
की मूनियां भी कविवर ने पटक में लिखा है कि:
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[ ]
॥ ढाल || इन्द्र ब्रह्मारे ईश्वर रूप चक्र श्वरी।
एक अंबिकारे कालिका अर्ध नाटेश्वरी ॥ विनायक रे योगणि शासन देवता। पासे रहेरे श्री जिनवर पाय सेवता ॥ ६ ॥
॥ त्रुटक ॥ संवता प्रतिमा जिण करावी, पांच ते पृथ्वी पालए। चंद्रगुप्त बिन्दुसार अशोक, संप्रति पुत्र कुणालए ॥ १० ॥ कनसार जोड़ा धूप धाणो, घंटा शंक भ्रगारए । निसिटा मोटा तद कालना, वली ते परकर सारए ॥ ११ ॥
॥ ढाल दूसरी ॥
* दोहा * मूल नायक प्रतिमा वाली, परिकर अति अभिराम । सुन्दर रूप सुहामणि, श्री पद्मप्रभु तसु नाम ॥ १ ॥
१-"वीतरागनी उगणीस प्रतिमा वली ए बीजी सुन्दरू" बीजी से मतलब १६ मूर्तियां अन्य देवो की ही है। और कई नाम तो आपने लिख ही दिये हैं जैसे इन्द्र, ब्रह्मा, ईश्वर, चक्रे श्वरी, अंबिका, अर्ध नाटेश्वरी, विनायक, योगनी,
और शासन देवता इसमें शासन देव तथा योगिनी की अधिक संख्या होने से सब को १६ लिखे हैं जिससे ६५ की संख्या पूर्ण हो जाती है ।
२-मूल नायक श्री पद्मप्रभ की प्रतिमा कराने वाले का नाम कषिवर ने सम्राट सम्प्रति सूचित किया है और चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक और कुणाल का नाम संप्रति की वंश परम्परा बतलाने को दिया है । संप्रति को कुणाल का पुत्र बतलाते हुए कविता की संकलना के कारण "संप्रति पुत्र, कुणालए" कहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[ ] श्री पद्मप्रभ पूजियाँ, पातिक दूर पलाय । नयणे मृति निरखता, समकित निर्मल थाय ॥२॥
आर्य सुहम्ती सूरीश्वरों, आगम श्रुत व्यवहार । संयम रांकवणी दियो, भोजन विविध प्रकार ॥ ३ ॥ उज्जैनी नगरी धणी, ते थयो सम्प्रति राय । जाति स्मरण जाणियों, ये ऋद्धि गुरु पसाय ॥ ४ ॥ वली तिण गुरु प्रति बोधियो, थयो श्रावक सुविचार । मुनिवर रूप बराबिया, अनार्य देश विहार ॥५॥
१-सम्राट संप्रति का होना और प्रतिष्ठा का समय बतलाते हुए कविवर ने कहा है कि प्राचाय सुहस्ती सूर ने दुष्काल में एक भिक्षुक को दीक्षा देके इच्छित आहार करवाया था, समयान्तर में वह काल कर कुणांस की राणो कांचनमावा की कुक्षि से सम्राट सम्प्रति हुश्रा
और जब वह उज्जन में राज करता था तब रथयात्रा की सवारी के साथ पाचार्य सुहस्ती उनकी नजर में पाए । विचार करते ही राजा को जाति स्मरण शान हो पाया और सब राज ऋद्धि गुरु कृपा से मिली जान गुरु महाराज के चरणों में आकर राज ले लेने की अर्ज की पर निराही गुरु राज को लेकर क्या करते उन्होंने यथोचित धर्म वृद्धि ब उपदेश दे उसको जैन एवं श्रावक बनाया । उसने सज्जैन में जैनों की एक विराट् सभा की, प्राचार्य सुइस्ती बादि बहुत से जैन श्रमण यहां एकत्र हुए। अभ्याऽन्य कार्यों के साथ यह भी निश्चय किया कि भारत के अतिरिक अन्य देशों में भी मैन धर्म प्रचारपाना पादिए । राजा संपति ने इस बात बीड़ा उठाया और अपने सुभटों नेपीन, जापान, भरविस्वान तुर्किस्वान, मिडिया रिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[ १० ] पुण्य उदय प्रगट यो घणो, साध्या भरत त्रिखण्ड । जिण पृथ्वी जिनमंदिरे, मण्डित करी अखण्ड ॥ ६ ॥ बी सय तीडोत्तर वीर थी, संवत सबल पंडूर । पद्मप्रभ प्रतिष्टिया, आर्य सुहस्ती सूर ॥७॥ महा तणी शुक्ल अष्टमी, शुभ मुहूर्त रविवार । लिपि प्रतिमा पूठेलिखी, ते वाची सुविचार ॥ ८॥
॥ ढाल तीसरी ॥
(चाल-शत्रुजय गयो पाप छूटये ) मूल नायक बीजो वली, सकल सुकोमल देहो जी। प्रतिमा श्वेत सोना तणी, मोटो अचरज येहो जी ॥१॥
मंगोलिया, जर्मन, फ्रान्स, आष्ट्रिया, इटली आदि प्रान्तों में भेज कर साधुत्व के योग क्षेत्र तैयार करवाया । बाद में जैन श्रमण भी उन प्रदेशों में बिहार कर जैन धर्म का जोरों से प्रचार करने लगें । यही कारण है कि आज भी पाश्चात्य प्रदेशों में जैन मूर्तियों और उनके भग्न खण्डहर प्रचुरता से मिलते हैं। भारतवर्ष में तो सम्राट ने मेदिनी ही मंदिरों से मण्डित करवा दी थी। गांगांणी के मन्दिर की प्रतिष्ठा के विषय में कविवर लिखते हैं कि वोर संवत् २७३ माघ शुक्ल अष्टमी रविवार के शुभ दिन सम्राट् संप्रति ने अपने गुरु आचार्य सुहस्ती सूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवाई, जिसका लेख उस मूर्ति के पृष्ठ भाग में खुदा हुआ है । कविवर समय सुन्दरजी महाराज ने उस लेख को अच्छी तरह से पढ़ कर ही अपने स्तवन में प्रविष्ठ के शुभ मुहूर्त का कलेख किया है।
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[ ११ ] अरजन पास जुहारिये, अरजुन पुरी शृगारो जी। तीर्थकर नेवेस मो, मुक्ति तणो दातारोजी ॥२॥ चंद्रगुप्त राजा हुओ, चाणक्य दिरायो राजो जी । तिण यह बिंब भरावियो, सारया आत्म काजो जी ॥३॥
१-दूसरे मूल नायक श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा सफेद सुवर्ण मय देख कविवर बड़ा भारी आश्चर्य प्रगट करते हैं। शायद रत्न हीरा, स्फटिक, माणिक्य नीलम, पन्ना आदि की मूर्तियाँ तो आपके समय में विद्यमान थी परन्तु सफेद सोना की मूर्ति गांगांणी में ही देख कर 'आपने आश्चर्य माना हो । सम्राट चन्द्रगुप्त ने इस प्रतिमा को बनवा कर वास्तव में मूर्ति के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा और भक्ति का परिचय दिया है। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में एक उल्लेख मिलता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने शासन में एक यह भी नियम बनाया था कि
"अक्रोशाव चैत्याना मुत्तमं दंड मर्हति"
अर्थात जो काई यदि चैत्य एवं देवस्थान के विषय में यद्वा-तद्वा अपशब्द कहंगा अथवा इनकी आशातना करेगा वह महान् दंड का भागी समझा जायगा, एसा जिन शासन का सच्चा भक्त यदि सफेद माने की मूर्ति बनावे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
सम्राट् चन्द्रगुप्त ने उस मूर्ति की प्रतिष्ठा चौदह पूर्वधर श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहु से करवाई थी, उनका समय कवीश्वर ने वीर निर्माण के पश्चात् १७० वर्ष का बतलाया है और उस समय यह दोनों महा पुरुष विद्यमान भो थे । इतना ही क्यों पर इनके पूर्व भी जैनों में
मूर्तियों के अस्तित्व का पता मिल सकता है जैसे कि:Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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। १२ ।
॥ ढाल चौथी ।।
( तर्ज - वीर सुणो मोरो विनति ) मारो मन तीर्थ मोहियो, मइ भेट या हो पद्म प्रभु पास । मूल नायक बहु अति भला, प्रणमतो हो पूरे मननी आस ॥ १ ॥
१-भगवान् महावीर अपने दीक्षा के सातवे वर्ष मुडस्थल में पदार्पण किया उस समय राजा नन्दीवर्धन आपके दर्शनार्थं आया जिसकी स्मृति में राजा ने एक मन्दिर बनाया उसके खण्डहर आज भी मिल सकते हैं ।
२-महाराजा उदाई की पट्टरानी प्रभावती के अन्तैवर गृह में भगवान् महावीर की मूत्ति थी राजा बीना बजाता और रानी त्रिकाल पूजा कर नृत्य करती थी।
३-कच्छ भद्रेश्वर के मन्दिर की प्रतिष्ठा वीरात् २३ वर्ष सौधर्माचार्य के कर कमलों से हुई वह मूर्ति और इसका शिला लेख आज भी विद्यमान है। .
४-नागोर के बड़ा मन्दिर में बहुत सी सर्वधातुमय मूर्तियां हैं। जिसमें एक मूर्ति पर वी. सं. ३२ का शिलालेख खुदा हुआ आज भी दृष्टिगोचर होता है।
५-आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से वी. सं. ७० वर्षों में उपकेश पुर में कराई प्रतिष्ठा का मन्दिर मूर्ति इस समय भी विद्यमान है।
६-कोरंटा नगर का महावीर मन्दिर भी आचार्य रलप्रभसूरि के समय का है।
७-महामेधवाहन महाराजा खारबेल का विशाद शिलालेख इन सब की पुष्टी कर रहा है क्योंकि इम शिलालेख और हेमवंत पट्टावलि से पाया जाता है कि भगवान महावीर के समय सम्राट श्रेणी ने खण्डगिरी पर भगवान ऋषभ देव का मन्दिर बनवाया था । ___८-मथुरा के कंकालि टीला से कई मूर्तियां स्तुप मिला है वह भी इतना
ही प्राचीन है कि जितना खारबेल का शिलालेख है इत्यादि। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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संघावे ठाम ठामना, वलि आवे हो यहां वर्ण अठार । यात्रा करे जिनवरतणी, तिणे प्रगट यो हो ये तीर्थ सार ॥२॥ जूनो बिंब तीर्थ नवो, जंगी प्रगट यो हा मारवाड़ ममार । गांगांणी अरजुन पुरी, नाम जाणे ही सगलो संसार ॥ ३ ॥ श्री पद्मप्रभ ने पासजी, ए बहु मूर्ति हो सकलाप । मुपना दिखावे समरतां, तसु वाध्यो हो यशः तेज प्रताप ॥४॥ महावीर भौहग तणी, ए प्रगटी हो मूर्ति अतिसार । जिन प्रतिमा जिन सारस्वी, काई शङ्का हो मत करजो लगार ॥५॥ संवन सोला बासटी सुमड, यात्रा किधी हो मइ महा मझार । जम्म सफल थयो म्हारो, दिव मुझने हो स्वामि पार उतार ॥ ६ ॥
॥ कलम ॥ हम श्री पद्मप्रभ प्रभु पास स्वाभि, पुन्य सुगुरु प्रसादए। . मुलगी अरजुन पुरी नगरी, बर्द्धमान सुप्रसादए । गच्छराज श्राजिनचद सरि, गुरु जिन हंस सूरीश्वरो । गणिसावलचंद विनय वाचक, समय सुन्दर सुख करो ॥ १॥
___E-वाम कर स्थानकवासी समाज के अग्रगण्य नेता साधु सन्त बालजी ने धर्म प्राण लोकागाह को लेखमाला में सम्राट अशोक के समय तथा साधु मणिलालजी ने वीर की दूसरी शताब्दी में मूर्तिपूजा स्वीकार करली है।
इसी प्रकार चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु आचार्य के समय की मूर्ति कविवर के ममय मिली हो तो इसमें संदेह ही क्या हो सकता है।
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अति हर्ष का विषय था जब इस प्राचीन मंदिर का. पाट सवें एवं ध्वजाभिषेक प्रति वर्ष महा सुद ६ को होता था और जैन एवम् जैनेतर हजारों की संख्या में इस शुभ दिन पर यहां एकत्रित होते थे । खेद है कि कुछ वर्षों से यह उत्सव बन्द हो गया है । मन्दिरजी की पूजा की व्यवस्था इसी गांव के निवासी श्रीयुत घेवरचन्दजी साहब के पुत्र श्रीयुत्त फकीरचन्दजी साहब करते रहे हैं । (आज कल दारजीलिंग जिला का अधिकारी गांव में रहते हैं)
__ इधर हाल ही में दिल्ली में होने वाले जैन गोष्टी में इस मन्दिर ने एक अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था जिसका विवरण "धर्मयुग” वर्ष ७ अङ्क ४८ रविवार २५-११-५६ में वो दैनिक नवभारत टाइम्स वो गौरखपुर के प्रकाशित “ कल्याण " तीर्थोक में दिया हुआ है।
श्री समय सुन्दरजी गणी कृत स्तवन से ऐसा मालूम होता है कि इस मन्दिर में किसी समय में ६५ प्रतिमाएं थी। समय परिवर्तन
------------- १-विक्रम की सतरहवीं शताब्दी में गाँगांणी अच्छा आबाद शहर होगा । और इस तीर्थ का यश एवं महिमा भी दूर दूर फैल गई होंगी तभी तो कविवर की विद्यमानता में ग्राम के संघ इस तीर्थ की यात्रार्थ आते थे।
२-इतना ही क्यों पर यहाँ के अधिष्ठायिक का परवा भी खूब जोर का था कि जैनों के अतिरिक्त अन्य अठारह वर्ण भी गांगाणी तीर्थ की यात्रा निमित्त आते है।
३-४--इस मन्दिर की एक सो मुनि प्राचीन दूसरी वह भी सफेद सुवर्ण की बनी होने से कवि श्री ने बिंब को जूना कहा है और उस समय ये मूर्तियाँ भू हारा मे मिलने पर मन्दिर में विराजमान की थी अतएवं जिर्णोद्धार के समय खूब जमघट रहता होगा।
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[ ५५ ]
- शील है उत्थान व पतन का चक्र घूमता रहता है। मुगलों के अत्याचार से इन प्रतिमाँश्रों में से अधिकांश काफी प्रतिमाएं खेतों में गाड दी गई और जिनका अभी तक कोई पता नहीं मिल सका। अब मन्दिर में सिर्फ ४ प्रतिमाएं रह गई हैं। एक मूल नायक श्री धर्मनाथ प्रभु, एक सर्व धातु की वो दूसरी मंजिल पर भगवान श्री पार्श्वनाथ की, चौथी प्रतिमा एक खेत में मिली जो गत महा सुद६ सं० २०१३ के उत्सव के दिन अभिषेक करवा कर मेहमान रूप में विराजमान कर दी गई हैं। इस मन्दिर का समय २ पर जीर्णोद्धार होना पुरानी ख्यातों से पाया जाता है जैसे कि:
१ - विक्रम की नौवीं शताब्दी में उपकेशपुर के श्रेष्ठ बोसट ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था ।
२ - विक्रम की बारहवीं शताब्दी में नागपुर के भूरंटों ने इस मन्दिर का स्मरण काम करवा कर पुण्य उपार्जन किया था ।
३ - विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में ओसियां के आदित्य गान गोत्रीय शाह मारंग सोनपाल ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करा कर इसकी स्थिति बढ़ाई थी ।
४ - विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के अन्त में बीकानेर के लोग यहां बगत में आए थे उस समय इस मन्दिर की जीर्ण हालत देख कर
इसका जीर्णोद्धार कराया ।
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[ १६ । मन्दिर का ५ वां जीर्णोद्वार सम्वत् १९८२ में गांगांणी निवासी श्रीमान घेवर चन्दजी छाजेड़ मेहता के प्रयत्न से अखिल भारतीय जैन श्री संघ की आर्थिक सहायता से हुआ था जिसकी रिपोर्ट [वि० संवत १६७६ से सं० १६६३ तक की ] सन् १९३७ ई. में प्रकाशित ह। चुकी है।
समय ने पलटा खाया- शासन देव की कृपा हुई और सौभा. ग्य से तेरापंथी समुदाय में ३३ वर्ष दिक्षा पाल कर शास्त्रों के अध्यन से मूर्वि पूजा का महत्व समझ मुनि श्री सुपारसमलजी महाराज इस तीर्थ होते हुए जोधपुर शहर में पधारे और मूर्तिपूजक समुदाय में दीक्षा ग्रहण की। श्रापका नाम मुनि श्री प्रेमसुन्दर जी रखा गया । सम्वन् २०१३ का आपका चातुमार्स जोधपुर शहर में हुआ। मुनि श्री ने मौन एकादशी के दिन श्री तपागच्छ धर्मक्रिया भवन में इस प्राचीन तीर्थ पर प्रभावशाली प्रकाश डाला और महा सुद ६ के दिन गांगांणी मन्दिर के पाट उत्सव के उपलक्ष में अट्ठाई महोत्सव शान्ति स्नात्र महोत्सव व स्वामिवत्सल्य आदि के लिए सदुपदेश दिया। जोध. पुर श्री संघ ने सहर्ष स्वीकार किया और यह शुभ कार्य श्री संघ की
आज्ञानुसार श्री जैन श्वेताम्बर सेवा समिति ने करना स्वीकार किया मिती महा वदि १३ से मुद ६ तक विविध प्रकार की पूजायें पढ़ाई गई, शान्ति स्नात्र वो स्वामिवत्सल्य ब ध्वजारोहण हुआ जिसमें हजारों तीर्थ प्रेमी बन्धुओं ने लाभ लिया।
उपरोक्त मैले के शुभ दिन पर जोधपुर, बापडी, दइकडा, बुचेटी भोपालगढ आदि के श्रावकों ने इस तीर्थ की भावी उन्नति के लिए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[ १७ ]
एक कार्यकारिणी समिति बनाई। इस तीर्थ की व्यवस्था सुचारू व स्थायी रूप से करना अति आवश्यक है किन्तु यह कार्य समस्त संघ के सहयोग से ही यह कार्यकारिणी समिति कर सकती है । मन्दिरजी में कमी सामान आदि का प्रबन्ध करना, यात्रियों के ठहरने के लिए व्यवस्था करना, मन्दिरजी के पास ही दूसरा जीर्ण मन्दिर है उसका जीर्णोद्वार करवाना आदि कार्य अति आवश्यक हैं ।
शास्त्रकार भगवान का कथन है कि नये मन्दिर बनाने से जो पुण्योपार्जन होता है उससे आठ गुणा अधिक प्राचीन मन्दिरों की मुव्यवस्था. जांद्वार आदि कराने में होता है ।
प्राचीन तीर्थ किसी एक व्यक्ति का नहीं वह तो समस्त संघ का है अतः आप इसके दर्शन कर विशाल मन्दिर की विशालता को स्वयं देखें । मन्दिरजी का वर्णन कलम से नहीं हो सकता यह तो स्वयं दर्शन करने से हृदयोल्लास से ही अनुभव किया जा सकता है ।
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इस मन्दिर के दर्शनार्थ आने वाले बन्धुओं को जोधपुर से दोपहर के ३ बजे भोपालगढ़ जाने वाली मोटर से जाना चाहिये । मोटर मन्दिरजी के पास ही खड़ी होती है। वहां से दिन के १२ बजे मोटर जोधपुर के लिए रवाना होती है। वहां ठहरने के लिए कुछ कोठड़िये बनी हुई हैं।
अन्त में भारतवर्ष के समस्त तीर्थप्रेमी बन्धुओ से कार्यकारिणी की नम्र प्रार्थना है कि एक २२०० वर्ष प्राचीन तीर्थ में तन, मन, धन से सहयोग प्रदान कर जिनेश्वर देव के मन्दिर के प्रति अपने कर्तव्य
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[ १८ को निभाते हुए पुण्यापार्जन करें और अधूरे कार्य को पूरा करने में कार्यकर्ताओं के उत्साह में वृद्धि करें।
___ आशा ही नहीं, किन्तु पूर्ण विश्वास है कि समस्त बन्धु इस प्राचीन मन्दिर के दर्शन कर अपनी आत्मा को तृप्त करेंगे और तन, मन, धन, से सहयोग देकर पुण्योपार्जन करेंगे और चंचल माया का सदुपयोग भी करेंगे । यही नम्र प्रार्थना है
___ शासन देवी सबको सद्बुद्धि प्रदान कर धर्म प्रेमियों में तीर्थ प्रेम जागृत करे । यही अभिलाषा है।
पत्र व्यवहार करने का पता:
भण्डारी मिश्रीमल खैरादियों का मोहल्ला, जोधपुर (राजस्थान)
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________________ 5 年 5 5 5 5 5 5 5 5 नयनाभिराम टाइप तथा आधुनिक साधनों से सम्पन्न ! अनुभवी व शिक्षित व्यक्तियों द्वारा संचालित !! आपका स्वधर्मी छापाखाना -: श्री जनतान्टिंग प्रेस : सिंगाजी का त्रिपोलिया, जोधपुर. जहां पर कि प्रत्येक भाषा की शुद्ध, सुन्दर व आकर्षक छपाई रबड़ की मुहरें व जिल्दसाजी का काम होता है परीक्षा प्रार्थनीय है! MAN. भा askaamMay 步 5 5 分 5 5 5 5 5 मुद्रकः-फतहसिंह जैन भी जनता प्रेस, त्रिपोलिया जोधपुर / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 'www.umaragyanbhandar.com