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[ १० ] पुण्य उदय प्रगट यो घणो, साध्या भरत त्रिखण्ड । जिण पृथ्वी जिनमंदिरे, मण्डित करी अखण्ड ॥ ६ ॥ बी सय तीडोत्तर वीर थी, संवत सबल पंडूर । पद्मप्रभ प्रतिष्टिया, आर्य सुहस्ती सूर ॥७॥ महा तणी शुक्ल अष्टमी, शुभ मुहूर्त रविवार । लिपि प्रतिमा पूठेलिखी, ते वाची सुविचार ॥ ८॥
॥ ढाल तीसरी ॥
(चाल-शत्रुजय गयो पाप छूटये ) मूल नायक बीजो वली, सकल सुकोमल देहो जी। प्रतिमा श्वेत सोना तणी, मोटो अचरज येहो जी ॥१॥
मंगोलिया, जर्मन, फ्रान्स, आष्ट्रिया, इटली आदि प्रान्तों में भेज कर साधुत्व के योग क्षेत्र तैयार करवाया । बाद में जैन श्रमण भी उन प्रदेशों में बिहार कर जैन धर्म का जोरों से प्रचार करने लगें । यही कारण है कि आज भी पाश्चात्य प्रदेशों में जैन मूर्तियों और उनके भग्न खण्डहर प्रचुरता से मिलते हैं। भारतवर्ष में तो सम्राट ने मेदिनी ही मंदिरों से मण्डित करवा दी थी। गांगांणी के मन्दिर की प्रतिष्ठा के विषय में कविवर लिखते हैं कि वोर संवत् २७३ माघ शुक्ल अष्टमी रविवार के शुभ दिन सम्राट् संप्रति ने अपने गुरु आचार्य सुहस्ती सूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवाई, जिसका लेख उस मूर्ति के पृष्ठ भाग में खुदा हुआ है । कविवर समय सुन्दरजी महाराज ने उस लेख को अच्छी तरह से पढ़ कर ही अपने स्तवन में प्रविष्ठ के शुभ मुहूर्त का कलेख किया है।
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