Book Title: Jain_Satyaprakash 1955 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ
[१ : २० जिनेश्वरसूरि हुए, उनके शिष्य जिनसिंहसूरिके पट्टधर जिनप्रभसूरि भी बडे समर्थ विद्वान हुए। मोहम्मद तुगलकको उन्होंने जैनधर्मका प्रतिबोध दिया और 'विविध तीर्थकल्प, विधिप्रपा, श्रेणिकचरित्र (चाश्रयकाव्य)' और सातसो स्तोत्रों आदिकी रचना की। इनके शिष्य जिनदेवसूरि, जिनकी रचित 'कालिकाचार्य कथा' और 'हेमी नाममाला-शिलोंच्छ' प्राप्य है। इनके पट्टधर जिनमेरुसूरिके शिष्य जिनहितसूरि हुए, जिनके रचित 'वीर स्तवन' हमारे संग्रहमें हैं। आपके प्रतिष्ठित 'पार्श्वनाथ पंचतीर्थी प्रतिमा का संवत् १४४७ का लेख 'धातु प्रतिमा लेख संग्रह ' भाग २, लेख अंक ६१७ में प्रकाशित है।
जिनहितसूरिके शिष्य उपाध्याय कल्याणराज हुए, चारित्रवर्द्धन इन्हीं कल्याणराजके शिष्य थे । अपना परिचय देते हए उन्होंने अपनी विद्वत्प्रतिभाका उल्लेख निम्न शब्दोंमें किया है" तच्छिष्यप्रतिपक्षदुर्द्धरमहावादीभपञ्चाननो, नानानाटकहाटकामरगिरिः साहित्यरत्नाकरः । न्यायाम्भोजविकाशवासरमणिोद्धतिजाग्रत्प्रभो, वेदान्तोपनिषन्निषण्णधिषणोऽलंकारचूडामणिः॥ श्रीवीरशासनसरोरुहवासरेशः, सद्धर्मकर्मकुमुदाकरपूर्णिमेन्दुः । वाचस्पतिप्रतिमधीनरवेषवाणिचारित्रवर्धनमुनिर्विजयी जगत्याम् ।।
'शिशुपालवध टीका 'के सर्गान्तमें भी लिखा है:-" इत्यखंडपांडित्यमंडितपादभामंडलाखंडलस्थापनाचार्यकर्पूरवीर( चीर )धाराप्रवाहप्रभृतिबिरदावलीकलितो( चलितो )त्कटवदान्यसुभटदेशलहरवंशसरसीरुहविकाशनमार्तण्डबिम्बप्रचंडदोर्दैडविकटचेचटगोत्र्यगोत्राभिदुन्नतसाधुश्री - देशलसंतानीयसाधुश्रीभैरवात्मजसाधुश्रीसहस्रमल्लसमभ्यर्थितजैनप्रभीयस्वच्छतुच्छाच्छतिल - कायमानचारित्रवर्द्धनाचार्यविरचितायां शिशुपालवधमहाकाव्यटीकायां विंशतितमः सर्गः ॥”
प्राप्त टीकाओंमें 'सिंदूरप्रकर, कुमारसंभव और रघुवंश'-इन तीनोंकी टीका प्रशस्तिमें तेरह श्लोक तो समानरूपसे व्यवहत हैं। जिनमें इन टीकाओंके रचे जानेके समय उपर्युक्त जिनहितसूरिके पट्टधर जिनसर्वसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसमुद्रसूरि और जिनतिलकसूरि क्रमशः आचार्य हुए। जिनतिलकसूरिकी विद्यमानतामें कुमारसंभव और सिंदूरप्रकरवृत्ति संवत् १४९२ और १५०५ में बनाई गई । रघुवंश टीकाकी भांडारकर आरियन्टल रिचर्स इंस्टीट्यूट की प्रतिमें उपर्युक्त तेरह श्लोकोंके बीचमें एक और श्लोक जोड़ा हुआ मिलता है, जिसमें जिनतिलकसूरिके पट्टधर जिनराजसूरि " जीते रहें ", लिखा गया है। इससे इस टीकाकी रचना सं. १५११
१. इनके रचित ७६ तीर्थमाला स्तवन गा. १२ हमारे संग्रहमें है ।
२. इनके रचित 'कुमारसंभव-वृत्ति' (भा० ओ० ई-पूना.) व 'रघुवंशवृत्ति' (हनुमानगढमें ) है।
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