Book Title: Jain_Satyaprakash 1955 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 25
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ : ४ ] વીરમપુર ઔર નાકોડા તી કી પ્રાચિનતા लिये [ ७३ उचित समझा। स्वर्गीय हरिसागरसूरिजीने भी वहाँके लेख लिये थे, तो उनसे भी मैंने उनके हुए लेखोंकी प्रतिलिपि मंगवाई थी। सं. १९९८ चैत वदि ६ को जैसलमेर से उन्होंने जो अपने लिये हुए लेखों की प्रतिलिपि मुझे भेजी थी वह अब भी उस लेखके साथ पड़ी है। मुनि विशालविजयजीने लेख पूरे नहीं लिये, मेरे संग्रहमें बहुतसे महत्त्वपूर्ण लेख नाकोड़ाके और भी हैं । उनके सम्बन्धमें तो फिर कभी प्रकाश डालूँगा । प्रस्तुत लेखमें तो वीरमपुर और नाकोड़ा नामों की प्राचीनता के सम्बन्धमें ही विचार किया जायगा । " श्री नाकोड़ा तीर्थ " ग्रन्थके पृष्ठ २० में प्रकाशित सं. १५१२ के शिलालेखमें “ रावल श्री वीरमविजयराज्ये " शब्द आता है । इस वीरम रावलके नामसे ही वीरमपुर नाम पडा ऐसी मेरी मान्यता है । इसके पहिले इस स्थान - ग्रामका नाम " महेवा " था । नाकोड़ा नाम तो और भी पीछे का होना संभव है। मेरे इस कथनका आधार यह है कि सं. १५०० से पहिले इस स्थानके वीरमपुर नाम होने का कोई भी प्रमाण नहीं है। न नाकोड़ा तीर्थका ही कहीं उल्लेख मिलता है, जैसा कि आगे बताऊंगा। यहां पर शांतिनाथ और महावीरके दो जैन मंदिर थे । नाकोड़ा पार्श्वनाथकी प्रतिमा उस समय वहाँ मूलनायक के रूपमें स्थापित होना कम ही संभव है । वर्तमान में जो पार्श्वनाथजी का मंदिर है उसके शिलालेखों से भी यह सूचना मिलती है कि मूलतः यह मंदिर महावीरस्वामीका था । पीछे जब वर्तमान पार्श्वनाथजी की प्रतिमा इस मंदिर में मूलनायक के रूप प्रतिष्ठित हुई और वह मूर्ति बहुत चमत्कारी प्रतीत हुई तभी से नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थके नामसे इस स्थानका महत्त्व बढा । इसी मंदिरके बाहरके मंडप में सं. १६७८ का एक शिलालेख है, जिसमें स्पष्ट लिखा है श्रीमहावीर चैत्ये श्रीसंघेन चतुष्किका- कारितम् (ता)। श्रीनाकोड़ा पार्श्वनाथप्रसादात् । " इसी मंदिरके भूमिगृह सं. १६६७ के शिलालेखमें भी लिखा है - " श्रीवीरमपुरवरे श्रीपार्श्वनाथ श्री महावीरभूमिगृहे । 66 अर्थात् इस समय तक यह मंदिर महावीर चैत्य है, इसकी स्मृति बनी हुई थी । यद्यपि अधिक प्रसिद्धि नाकोड़ा पार्श्वनाथके नामसे हो चुकी थी । फलतः १६८१ के लेखमें “ श्रीपार्श्वनाथजी चैत्ये " शब्द ही पाते हैं। संभावना यह है कि यह मंदिर तो महावीरस्वामीका ही था - पर भूमिगृहमें शायद पार्श्वनाथकी प्रतिमा होगी। मेरे ख्यालसे किसी बाहरी आक्रमणके प्रभाव महावीर प्रतिमा खंडित हो जाने पर पार्श्वनाथजी की प्रतिमाको मूलनायक के रूप में स्थापित कर दिया होगा या यह भी संभव है कि लोकापवाद के अनुसार यह पार्श्वनाथ जी की मूर्ति आसपास से प्रगट हुई हो या कालिद्रह (नागदह ) में छिपाके रखी थी; वहाँसे लाई गई हो पर यह तो निश्चित है कि सं. १५५० से पहिले इस तीर्थ की प्रसिद्धि पार्श्वनाथ तीर्थके रूपमें For Private And Personal Use Only

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