Book Title: Jain_Satyaprakash 1955 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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वीरमपुर और नाकोडा तीर्थकी प्राचीनता
लेखक :-श्रीयुत भंवरलालजी नाहटा.
मुनिवर्य श्री. जयन्तविजयजीने जिस लगन, श्रम और तत्परताके साथ आबू तीर्थ और उसकी प्रदक्षिणामें आए हुए ब्राह्मणवाड़ा आदि ९६ स्थानों के शिलालेखादिका संग्रह कर उनका इतिहास प्रकाशित किया, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य था, अन्य जैन मुनियोंके लिये वह आदर्श होना चाहिए । स्थान २ पर मुनिगण घूमते तो रहते हो है, यदि उनकी दृष्टि, जहाँ भी वे पधारे, वहाँके इतिहास और साहित्यकी खोजकी ओर रहे, तो जो काम लाखों रूपयों खर्च करके भी नहीं हो सकता, वह सहज संभव हो जाता है।।
हर्षकी बात है, कि मुनि जयन्तविजयजीके शिष्य विशालविजयजी अपने गुरुके अनुकरणमें उनके कामको आगे बढ़ाने में प्रयत्नशील हैं। कुछ महिनों पूर्व उनके लिखित " श्रीनाकोडा तीर्थ" पुस्तक मिली; तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मुनिश्रीका इस सम्बन्धमें यह पहला प्रयत्न होने पर भी उन्होंने अच्छी जानकारी दी है। इससे भविष्यके लिये काफी आशा की जा सकती है। पर अभी तक इतिहासकी जो विशुद्ध दृष्टि चाहिए, उसकी कुछ कमी प्रतीत हुई। वास्तवमें वह गंभीरता पहुँचे बिना आ नहीं सकती। प्रथम प्रयासमें भूलें-स्खलना संशोधनके मार्ग प्रदर्शनके लिये एक महत्त्वपूर्ण विषय पर प्रस्तुत लेखमें प्रकाश डाला जा रहा है।
मुनिश्रीने प्रस्तुत ग्रंथके द्वितीय प्रकरणमें नाकोडा और वीरमपुरकी प्राचीनताके सम्बन्धमें जो दन्तकथा दी है, वह सर्वथा कल्पित है। उन्होंने विक्रम पूर्व दूसरी तीसरी शताब्दिके एक राजा वीरमदन्त और नाकोरसेनने अपने नामसे वीरमपुर और नाकोड़ा गाँव बसाया, और स्थूलिभद्र आचार्यको अपने नगरमें लाकर दो जैन मंदिरोंकी प्रतिष्ठा करवाई, आदि जितनी भी घटनाएँ सं. १३१३ तककी उन्होंने दी है, वे सारीकी सारी बातें गलत और कल्पित है। लोकापवादमें ऐसी कल्पित बातें प्राचीनताके मोहवश जोडी हुई बहुत पाई जाती हैं। इतिहास लेखकको उनमेंसे बड़ी सावधानीसे तथ्य निकालना पड़ता है । जरासी असावधानी हुई कि इतिहास, इतिहास न रह कर गप्पोंका खजाना " बन जाता है। आगे मैं इन दोनों नामोंकी प्राचीनताके सम्बन्धमें अपने विचार सप्रमाण उपस्थित कर रहा हूँ। ___ करीब १५ वर्ष हुए होंगे, मैं नाकोड़ाको यात्राको गया था। तब वहाँके प्रतिमा लेखादिको मैं ले आया था, और " नाकोड़ा पार्श्वनाथजीके कतिपय शिलालेख" शीर्षक लेख तभीका लिखा हुआ, मेरे पास अब भी पड़ा है। अप्रकाशित रखनेका कारण यह है कि मुझे वहाँ कुछ लेख अशुद्धसे लगे अतः मैंने एकबार दुबारा देखकर ही प्रकाशित करना
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