Book Title: Jain_Satyaprakash 1955 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म : ४] પંચ કાવ્ય....શ્રી. ચારિત્રદ્ધન [६१ के पीछेकी होनी चाहिये, क्योंकि चारित्रवर्धनकी नैषधटीका जो सं. १५११में बनाई गई थी, उसमें जिनतिलकसूरिकी विद्यमानताका उल्लेख है। जिनतिलकसूरि काफी वर्षों तक आचार्य पद पर रहे मालूम होते हैं। इनके शिष्य राजहंस उपाध्यायकी सं. १४८६ की लिखित 'वाग्भट्टालंकारवृत्ति की प्रति 'भांडारकर इंस्टीट्यूटमें प्राप्त है । प्रतिमाप्रतिष्ठा लेख तो आपके १५२८ तकके मिलते हैं । यदि उन लेखोंका समय ठीकसे पढ़ा गया है, तो चारित्र वर्द्धनकी रघुवंशवृत्ति संवत् १५२८ के बादको सिद्ध होगी और चारित्रवर्द्धनका स्वर्गवास संवत् १५३० के लगभग होना संभव है। 'नैषध टीका में लिखा गया है कि यद्यपि इससे पहले इस पर अनेक टीकाएं विद्यमान हैं पर यह टोका विशेषरूपसे 'जननी व प्रथप्रदर्शिका होगी'। यह टीका अभी तक छपी नहीं हैं, अतः शीघ्र हो प्रकाशित होनी चाहिये । आपकी रचित टीकाओंका परिचय इस प्रकार है:-- (१) मेघदूत टीका. (११२) श्लोककी यह टीका श्रीमालसालिगके पुत्र साधु अरडकमलकी समभ्यनासे रची गई । इसकी संवत् १५२४की ३० पत्रोंकी लिखित प्रति उपा. विनयसागरजीके सग्रहमें है । वैसे यह टीका छप भी चुकी है। (२) कुमारसंभववृत्तिः-संवत् १४९२ के माघ शुक्ला अष्टमीको उपर्युक्त अरडकमल्लकी अभ्यर्थनासे यह " तात्पर्य दीपिका-शिशुहितैषिणीवृत्ति” बनायी गयी । संवत् १९५४ में गुजराती मुद्रणालय,बम्बईसे यह प्रकाशित भी हो चुकी है । भांडारकर इंस्टीट्यूटकी प्रतिके अनुसार छः सर्गकी टीका चारित्रवर्द्धनकी है और सातवें सर्गकी मेदपाटज्ञातीय उदयाकरकी है । प्रकाशित संस्करणमें ७ सर्ग तककी टीका चारित्रवर्द्धनकी बताई गयी है। (३) रघुवंशवृत्ति-इसमें रचनाकालका निर्देश नहीं है । जैसा कि ऊपर लिखा गया है; यह टीका सबसे पीछे बनायी जाना संभव है । इसकी रचना भी उपर्युक्त अरडकमल्लकी अभ्यर्थनासे हो हुई है। (४) सिंदूरप्रकर टीका-यह सोमप्रभाचार्यरचित सुक्तावलीकी विशद टीका है । एक सौ श्लोकों पर यह ४८०० सौ श्लोक प्रमाणको विवृति टीकाकारके असाधारण पाण्डित्यकी परिचायक है । दृष्टान्तके रूपमें इसमें अनेक कथाएं भी दी गयी हैं। संवत् १५०५ के राध (वैसाख) शुक्ला अष्टमी गुरुवारको श्रीमालवंशीय ढोरगोत्रीय ठक्कुर भीषणकी अभ्यर्थनासे इसकी रचना की गई। धर्मदासके द्वारा इसकी प्रथम प्रति लिखी जाने का निर्देश प्रशस्तिके अंतिम श्लोकमें पाया जाता है। पत्ता नहीं वह आपका दीक्षित या गृहस्थ शिष्य था या कौन १ इनके रचित 'जीवप्रबोधप्रकरण' बीकानेर श्रीपूज्यजीके संग्रहमें है। For Private And Personal Use Only

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