Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૨ ] કયા કાલકાચાર્ય દેશદ્રોહી થે? [ ૬૯ पाकर आत्मकल्याणकारिणी स्त्रोतस्विनो का प्रबल प्रवाह बन्धु-भगिनीके हृदयमें उमड आया। फल स्वरूप दोनोंने जैनधर्म को मुनिदीक्षा स्वीकार की। कालकाचार्य राजपुत्र होनेके नाते भिन्न भिन्न कलाओंमें निष्णात थे । सरस्वती भी एक आदर्श विदुषी होनेके नाते अपने मूल नामको चरितार्थ करती थी। क्रमशः पर्यटन करते करते इनका आगमन उज्जैनी नगरीमें हुआ, जहांपर गर्दभिल्ल नामक राजा राज्य करता था। उसकी मनोवृत्ति माताओं और बहिनों के प्रति बड़ी क्रूर थी; स्पष्ट कहा जाय तो राजा अपनी विषयवासनाकी पूर्तिके लिए हरेक काम कर सकता था। सरस्वती राजकुलोत्पन्न सन्नारी होनेसे अत्यन्त रूपवती सुन्दरी थी। राजाकी दृष्टि पड़ते हो राजाने अपने अनुचरों द्वारा सती-साध्वीकों अपहृत कर अपने महलमें बुलवाया । जब आर्य कालक, जो उद्यानमें ठहरे हुए थे, उन्हें यह विदित हुआ कि नराधम गर्दभिल्ल द्वारा मेरो भगिनी का अपहरण हुआ है तब वे बहुत व्याकुल हुए। उन्होंने राजाको सब प्रकारसे समझाया, बुझाया, परन्तु उस पाषाणहृदय पर कुछ असर न हुआ। तत्पश्चात् वहांके नागरिकोंने भी सामूहिक रूपसे राजासे प्रार्थना की कि एक सती-साध्वी स्त्रीका अपहरण करना आपके लिए उचित नहीं है, क्यों कि इनके ज्येष्ठ बन्धु, जो कि मानवसमाजके एक प्रतिष्ठित आचार्य हैं वे सर्वशक्तिसम्पन्न व्यक्ति है अतः अभी भी यदि आप सरस्वतीको उन्मुक्त कर दें तो आपका भविष्य खतरेसे वच सकता है । परन्तु इतने अनुनयविनयके बाद भी विषयान्ध नेरश अपना मत परिवर्तन करनेको तैयार नहीं हुआ। कवियोंने असत्य नहीं कहा है कि-"विनाशकाले विपरीत बुद्धि"। अब कालकाचार्यने निश्चय किया कि कैसी भी परिस्थिति क्यों न खडी हो, पर मैं अपनी बहिन-साध्वीको अवश्य मुक्त करवाउंगा । अब कालकाचार्यने अपना भावी कार्यक्रम निर्धारित किया और क्रमशः शकोंको लाकर गर्दभिल्लको परास्त कर स्वभगिनी सरस्वती साध्वीकी मुक्ति कराई। तदनन्तर कुछ वषों के बाद कालिकाचार्यके भानजे बलमत्र और भानुमित्र ( जो भरौंचके राजा थे और गर्दभिल्लको परास्त करनेमें पर्याप्त सहायक भी थे) ने शकोंको भी परास्त कर स्वशान अर्थात् भारतीय शासन कायम किया। कहनेका तात्पर्य यह कि इनको भी अवन्ती पर शकोंका शासनका रहना अभीष्ट नहीं था। उपर्युक्त घटनाको यदि लेखक महोदयने हृदयंगम किया होता तो वे कालकाचार्यको देशद्रोही कहनेका दुस्साहस कदापि न करते । संसारमें जिन्दादिल ऐसी कौन व्यक्ति होगी जो अपनी माता और बहिन पर ढोते हुए अत्याचारोंको देखकर भी मौन रह सके । आर्य कालकने यदि गर्दभिल्लको शिक्षा न दी होती तो पिछले राजा ऐसे घृणित कार्य करते तनिक भी न हिच. किचाते । यदि आर्य संस्कृतिमें सर्वत्र व्याप्त सत्यकी रक्षाके लिए और शैतान शासकको दण्ड For Private And Personal Use Only

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