Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૪ ] ' જીવકે કર્મબંધ ઔર મોક્ષકા અનાદિત્વ [ ૧૦૯ इन मूल कारणांके एकान्तिक रूपसे मिटजाने पर, जीवका कर्मोंके क्लेशोंसे छुटकारा हो जाता है; उसीको मोक्ष कहते हैं । मोक्ष होने पर कर्मबन्धनके योग्य कारणांका आत्यन्तिक अभाव होनेसे मुक्त जीव संसारमें वापस नहीं आता। . . संयोग और वियोग यह १ अनादी अनंत, २ अनादि सांत, ३ सादि अनंत, ४ सादि सांत, ऐसे चार प्रकारसे होता है। इन चारों प्रकारों को समझानेके लिए ही उपरकी बातें मोटे रूपमें बताई गई हैं। कर्ता कारण और कार्यको समझे बिना उपरके चार प्रकार संमझमें नहीं आते । कर्ता-स्वयं जीव है । कारण काल, सभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ ये पांच हैं। कर्ता उस प्रकारके कारणोंको पाकर अनादि कालसे अच्छे बुरे कार्यों को करता है। उन कार्योंके द्वारा आत्मा अच्छे बुरे पुद्गलोंको अपनाता है । उन अपनाये हुए पुद्गलोंको जैन शास्त्रोंमें कर्मके नामसे सूचित किया है। कर्मपुद्गलकी विशेषता . - कर्म पुद्गलकी विशेषता जैसो जैन दर्शनमें निरूपित है वैसी अन्यत्र देखनेको नहीं मिलती। वैसे कर्मको प्रत्येक दर्शनने मंजूर किया है, परंतु किसीने क्रियामात्रको कर्म कहा, तो किसीने अनुष्ठान विशेषको कर्म कहा, और उसके फलादेशके समय ईश्वरको संकल्पित करके संसारको रचना, कर्मफलोको देना, आदि कार्य उसके आधीन कर दिये। उस हालतमें ईश्वरकी प्रेरणासे हो जीव स्वर्गमें या नरकमें जाता है-ऐसे सिद्धांतों की रचना (ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च-) भी उन २ दर्शन ग्रंथोमें देखी जाने लगी। अस्तु ! जैन दर्शनमें ईश्वर . जैन दर्शनमें ईश्वर किसी एकको मंजूर नहीं किया। न जगत्कर्ता रूपसे ही उसे कोई महत्त्व दिया। न वह कर्मफलोंका दाता ही माना गया। जगत और उसमें होनेवाली प्रत्येक घटना प्रकृतिको पूर्वसूचित काल स्वभाव नियति पूर्वकृत कर्म और पुरूषार्थकी उपज मात्र मानी गई है। ईश्वर ऐसे प्रपंचोंमें नहीं पड़ा करता । प्रत्येक आत्मामें परमात्मता छिपी हुई है। उसे व्यक करनेपर आत्मा परमात्मा हो जाता है। अनादि कालकी अपेक्षासे अमंत परमात्मा हो गये हैं, और भविष्यमें भी अनंत परमात्मा होंगे। जीव और कर्मोका संबंध जीव और कमीका संबंध अनादि कालसे चला आ रहा है। जीव और कर्ममें से किसी एककी पहिले या पीछे उत्पत्ति नहीं हुई। समय २ पर पुराणे कर्म, अपनी संतान परंपरा छोड़ते हुए, क्षीण होते जाते हैं। यह कोंकी संतानपरंपरा तब तक बराबर जारी रहेगी, For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36